(खेतड़ी के महाराज को लिखित)
द्वारा ऋषिवर मुकर्जी
चीफ जज, काश्मीर
१७ सितंबर १८९८
महाराज
,
मैं यहाँ दो सप्ताह बहुत अस्वस्थ रहा। अब अच्छा हो रहा हूँ। मेरे पास
पैसे नहीं हैं। यद्यपि मेरे अमेरिकन मित्र सामर्थ्य के अनुसार मेरी
यथायोग्य सहायता कर रहे हैं--मुझे हमेशा उन लोगों के आगे हाथ पसारने में
लाज आती है-खासकर बीमारी के दवादारू, पथ्य वगैरह के लिए। संसार में मुझे
एक ही आदमी के सामने हाथ पसारने में कभी लज्जा का अनुभव नहीं होता और वह
आप हैं। आप दें या नहीं-कोई बात नहीं। यदि संभव हो तो कृपया कुछ रुपये
भेजिए। आप कैसे हैं ? मैं अक्तूबर के मध्य तक नीचे उतर रहा हूँ।
जगमोहन से कुमार साहब के पूर्ण आरोग्य लाभ का संवाद सुनकर प्रसन्न हुआ।
अब वे मजे में हैं; आशा है, आप भी सानंद हैं।
सदैव आपका,
विवेकानंद
(श्री हरिपद मित्र को लिखित)
श्रीनगर, काश्मीर
१७ सितंबर, १८९८
कल्याणीय,
तुम्हारे पत्र तथा 'तार' से सब समाचार विदित हुए। प्रभु से प्रार्थना
करता हूँ कि तुम निर्विघ्न सिंधी भाषा की परीक्षा में उत्तीर्ण हो।
बीच में मेरी तबियत खराब हो जाने के कारण कुछ विलंब हो गया, नहीं तो इसी
सप्ताह के अंदर पंजाब जाने की अभिलाषा थी। इस समय बंगाल में गर्मी अधिक
होने के कारण डॅाक्टर जाने को मना कर रहे हैं। अक्तूबर के अंतिम सप्ताह
तक संभवत: मैं कराची पहुँचूँगा। इस समय मैं एक प्रकार से ठीक हूँ। मेरे
साथ इस बार कोई भी नहीं है। सिर्फ दो अमेरकिन महिलाएँ हैं। संभवत: लाहौर
में मैं उनका साथ छोड़ दूँगा। कलकत्ता अथवा राजपूताने में वे मेरी
प्रतीक्षा करेंगी। कच्छ, भुज, जूनागढ़, भावनगर, लिमडी तथा बड़ौदा होकर
संभवत: मैं कलकत्ता पहुँचूँगा। नवंबर अथवा दिसंबर माह में चीन तथा जापान
होकर अमेरिका जाना है--इस समय मेरी ऐसी इच्छा है, आगे प्रभु की इच्छा।
यहाँ पर मेरा संपूर्ण खर्च उक्त दो अमेरिकन महिलाएँ दे रही रही हैं और
कराची तक का किराया भी उनसे लेने का विचार है। यदि तुम्हें सुविधा हो जा
५०/ रुपये 'तार' से श्री ऋषिवर मुकर्जी, चीफ़ जज, काश्मीर स्टेट श्रीनगर
के पते पर भेज देना। इससे मेरी एक बड़ी सहायता हो जाएगी, क्योंकि हाल ही
में बीमारी के कारण कुछ रुपये व्यर्थ में खर्च करने पड़े हैं एवं सर्वदा
विदेशी शिष्यों से आर्थिक सहायाता माँगने में लज्जा प्रतीत होती है।
सदा शुभाकांक्षी,
विवेकानंद
(खेतड़ी के महाराज को लिखित)
लाहौर
१६ अक्तूबर, १८९८
महाराज,
तार के बादवाले पत्र में मैंने अपने स्वास्थ्य के संबंध में लिखा
था-इसलिए मैंने आप के तार का जवाब तार से नहीं दिया।
इस बार काश्मीर में मैं बहुत बीमार रहा। अब अच्छा हूँ और आज ही सीधे
कलकत्ता जा रहा हूँ। पिछले दस वर्षों से मैंने बंगाल की श्री दुर्गा-पूजा
(जो बहुत धूमधाम से होती है और जिसका बंगाल में विशेष महत्व है) नहीं देखी
है। मुझे आशा है कि इस बार पूजा में मैं वहाँ उपस्थित रहूँगा।
पश्चिमी बंधु एक या दो सप्ताह में जयपुर देखने जाएंगे। यदि जगमोहन वहाँ
हो, तो कृपया उसको इस बात की ताक़ीद कर दें कि वह उन लोगों की देखभाल करे
और उन्हें जयपुर शहर तथा प्राचीन कला-संग्रह आदि दिखला लावे।
मैंने अपने गुरुभाई सारदानंद से कह दिया है। रवाना होने के पहले ही वे
मुंशी जी को सूचना दे देंगे।
आप और कुमार साहब कैसे हैं ᣛ? सदा की भाँति आपके लिए मंगल कामना करता
हुआ--
आपका,
विवेकानंद
पुनश्च--अब मेरा पता होगा : मठ, बेलूड़, जिला हावड़ा, बंगाल
(श्री हरिपद मित्र को लिखित)
लाहौर
१६अक्तूबर, १८९८
कल्याणीय,
काश्मीर में मेरा स्वास्थ्य एकदम ख़राब हो चुका है तथा 9 वर्षों से
श्री दुर्गा-पूजा देखने का अवसर भी प्राप्त नहीं हुआ है--अत: कलकत्ता
रवाना हो रहा हूँ। अमेरिका जाने का संकल्प इस समय त्याग चुका हूँ। जाड़े
में कराची आने के मुझे अनेक अवसर मिलेंगे।
मेरे गुरुभाई सारदानंद लाहौर से ५०/ रुपये कराची भेज देंगे। तुम दु:खित न
होना-सब कुछ प्रभु की इच्छा है। मैं इस वर्ष तुम लोगों से मिले बिना कहीं
भी नहीं जाऊँगा-यह निश्चित जानना। सबको मेरा आशीर्वाद।
सदा शुभाकांक्षी
विवेकानंद
(खेतड़ी के महाराज को लिखित)
मठ, बेलूड़,
जि़ला हावड़ा, बंगाल
२६ अक्तूबर, १८९८
महाराज,
मैं आप के स्वास्थ्य के लिए अत्यधिक चिन्तित हूँ। लौटती बार आपसे
मिलने की बड़ी अभिलाषा थी, किंतु मेरा स्वास्थ्य ऐसा गिरा कि मुझे
जल्दी ही यहाँ भाग आना पड़ा। मुझे लगता है, मेरे हृदय मे कोई गड़बड़ी है।
बहरहाल, आपके स्वास्थ्य के संवाद के लिए बहुत उद्विग्न हूँ। आप चाहें
तो मैं खेतड़ी आ सकता हूँ। दिनरात आप के मंगल के लिए प्रार्थना कर रहा
हूँ। कुछ अप्रिय घटे भी तेा धीरज मत छोड़िएगा। माँ सर्वदा आपकी रक्षा कर
रही हैं।
सभी समाचार लिखकर सूचित करें।....आप और कुमार साहब कैसे हैं ? प्यार और
अनंत आशीर्वाद के साथ--
आपका,
विवेकानंद
(खेतड़ी के महाराज को लिखित)
मठ, बेलूड़
हावड़ा जि़ला
(?) नवंबर, १८९८
महाराज,
आप तथा कुमार साहब का स्वास्थ्य अच्छा जानकर प्रसन्न हूँ। जहाँ तक
मेरे स्वास्थ्य का प्रश्न है, मेरा हृदय कमज़ोर हो गया है। मैं नहीं
समझता कि जलवायु परिवर्तन से कोई लाभ होगा क्योंकि पिछले चौदह वर्षों से
मैं लगातार तीन महीने तक कहीं ठहरा होऊँ--मुझे याद नहीं। मेरा ख्याल है
कि यदि कई महीने तक एक ही स्थान पर रहने का संयोग संभव हो, तो इससे कुछ
लाभ हो सकता है। बहरहाल, मुझे इसकी चिंता नहीं। जो भी हो, मुझे लगता है कि
मेरा इस जीवन का 'कार्य' समाप्त हो गया है। अच्छे और बुरे, सुख और दु:ख
की धारा में मेरी जीवन-नौका थपेड़े खाती हुई अब तक चली। एक बड़ी शिक्षा जो
मुझे मिली है, वह यह कि जीवन दु:ख के सिवा और कुछ नहीं है। माँ ही जानती
हैं कि क्या अच्छा है। हम सभी कर्म के हाथों में हैं--उसी के आदेशानुसार
हम चलते हैं--अस्वीकार नहीं कर सकते। जीवन में एक ही तत्त्व है --जो किसी
भी कीमत पर अमूल्य है--वह है प्रेम। अनंत प्रेम ! असीम आकाश जैसा
विस्तीर्ण, समुद्र की भाँति गंभीर; जीवन का यह एक महान लाभ है। इस
तत्त्व को प्राप्त करनेवाला सौभाग्यवान है।
आपका,
विवेकानंद
(खेतड़ी के महाराज को लिखित)
मठ, बेलूड़
१५ दिसंबर, १८९८
महाराज,
आपका कृपापत्र श्री दुलीचंद के नाम 500/ रु. की दर्शनी-हुंडी के साथ,
प्राप्त हुआ। मैं अब तनिक अच्छा हूँ। कह नहीं सकता यह सुधार स्थायी
होगा या नहीं।
जैसा कि सुन रहा हूँ, क्या इस शीत-काल में आपके कलकत्ता आने की सूचना सही
है ? बहुत से राजा नए वाइसराय का अभिनंदन करने आ रहे हैं। अखबारों से यह
पता चला है कि सीकार के महाराजा यहीं हैं।
आपके लिए सदैव प्रार्थना करते हुए --
आपका,
विवेकाननद
मठ, बेलूड़,
१५ दिसंबर, १८९८
प्रिय--
'माँ' ही हमारी एकमात्र पथ-प्रदर्शिका हैं। और जो कुछ हो रहा है अथवा
होगा, सब कुछ उनके ही विधानानुसार होगा।
तुम्हारा,
विवेकानंद
(श्रीमती मृणालिनी बसु को लिखित)
देवघर, वैद्यनाथ,
द्वारा बाबू प्रियनाथ मुकर्जी
२३ दिसंबर, १८९८
माँ,
तुम्हारा पत्र पाकर मुझे बड़ा आनंद हुआ। तुम जो समझी हो वह ठीक है। स ऽनिर्वचनीयप्रेमस्वरूप:-- ईश्वर अनिर्वचनीय
प्रेमस्वरूप है। नारद द्वारा वर्णन किया हुआ ईश्वर का यह लक्षण स्पष्ट
है और सब लोगों को स्वीकार है, यह मेरे जीवन का दृढ़ विश्वास है। बहुत
से व्यक्तियों के समूह को समष्टि कहते हैं और प्रत्येक व्यक्ति
व्यष्टि कहलाता है। तुम और मैं--दोनों व्यष्टि हैं, समाज समष्टि है। तुम
और मैं--पशु, पक्षी, कीड़ा, कीड़े से भी तुच्छ प्राणी, वृक्ष, लता,
पृथ्वी, नक्षत्र और तारे ये प्रत्येक व्यष्टि हैं और यह विश्व समष्टि
है, जो वेदांत में विराट् हिरण्यगर्भ या ईश्वर कहलाता है और पुराणों में
ब्रह्मा, विष्णु, देवी, इत्यादि।
व्यष्टि को व्यक्तिगत स्वतंत्रता होती है या नहीं, और यदि होती है तो
उसका नाम क्या होना चाहिए, व्यष्टि को समष्टि के लिए अपनी इच्छा और सुख
का संपूर्ण त्याग करना चाहिए या नहीं--ये प्रत्येक समाज के लिए चिरन्तन
समस्याएँ हैं। सब स्थानों में समाज इन समस्याओं के समाधान में संलग्न
रहता है। ये बड़ी-बड़ी तरंगों के समान आधुनिक पश्चिमी समाज में हलचल मचा
रही हैं। जो समाज के आधिपत्य के लिए व्यक्तिगत स्वतंत्रता का त्याग
चाहता है, वह सिद्धांत समाजवाद कहलाता है और जो व्यक्ति के पक्ष का
समर्थन करता है, वह व्यक्तिवाद कहलाता है।
समाज का व्यक्ति पर निरंतर शासन तथा संस्था एवं नियमबद्धता द्वारा
बलपूर्वक आत्मत्याग, और इसके परिणाम तथा फल का ज्वलंत उदाहरण--यही
हमारी मातृभूमि है। इस देश में शास्त्रीय आज्ञानुसार मनुष्य जन्म लेते
हैं, वे नियम-विधि से आजीवन खाते-पीते हैं, और विवाह तथा विवाह-संबंधी
कार्य भी इसी प्रकार करते हैं, यहाँ तक कि शास्त्रों के नियामानुसार ही
वे मरते भी हैं। एक विशेष गुण को छोड़कर यह कठिन नियमबद्धता दोषों से
परिपूर्ण है। गुण यह है कि बहुत थोड़े यत्न से मनुष्य एक या दो काम अति
उत्तम रीति से कर सकते हैं, क्योंकि कई पीढ़ियों से उस काम का दैनिक
अभ्यास होता है। जो स्वादिष्ट शाक और चावल इस देश के रसोइया तीन
मिट्टी के ढेले और कुछ लकड़ियों की सहायता से तैयार कर सकते हैं, वह और
कहीं नहीं मिल सकता। एक रुपये मूल्य के बहुत ही प्राचीन समय के करघे जैसे
सरल यंत्र की सहायता से, पैर गढ़े में रखकर 20/ गज़ की मलमल बनाना केवल
इसी दश में संभव हो सकता है। एक फटा टांट और रेंडी के तेल से जलाया हुआ
मिट्टी का दीया-- ऐसे पदार्थों की सहायता से केवल इसी देश में अद्भुद
विद्वान उत्पन्न होते हैं। कुरूप और विकृत पत्नी के प्रति असीम
सहनशीलता तथा दुष्ट और अयोग्य पति के पति के प्रति आजन्म भक्ति, यह भी
इसी देश में संभव है। यह तो हुआ उज्ज्वल पक्ष।
परंतु यह काम वे लोग करते हैं, जिनका जीवन निर्जीव यंत्र के समान व्यतीत
होता है। उनमें मानसिक क्रिया नहीं है, उनके हृदय का विकास नहीं होता,
उनका जीवन स्पन्दनहीन है, आशा का प्रवाह बन्द है, उनमें इच्छाशक्ति की
कोई प्रबल उत्तेजना नहीं है, सुख का तीब्र अनुभव नहीं है, न प्रचंड दु:ख
ही उन्हें स्पर्श करता है; उनकी प्रतिभाशाली बुद्धि में निर्माण-शक्ति
कभी हलचल नहीं मचाती, नवीनता की कोई अभिलाषा नहीं है, और न नयी वस्तुओं
के प्रति आदर-भाव ही है। उनके हृदयाकाश के बादल कभी नहीं हटते,
प्रात:कालीन सूर्य की छवि कभी उनके मन को मुग्ध नहीं करती। उनके मन में
यह कभी नहीं आता कि इससे अच्छी भी कोई अवस्था हो सकती है, यदि ऐसा विचार
आता भी है तो विश्वास नहीं होता, विश्वास होता है, तो उद्योग नहीं हो
पाता। और उद्योग होने पर उत्साह का अभाव उसे मार देता है।
यदि यह निश्चित है कि नियम से रहने से प्रतिष्ठा प्राप्त होती है, यदि
परम्परा से चली आयी हुई प्रथा का कठोरता से पालन करना पुण्य है, तब
बताइए कि वृक्ष से बढ़कर पुण्यात्मा कौन हो सकता है, और रेलगाड़ी से
बढ़कर भक्त और महात्मा कौन है ? किसने पत्थर के टुकड़े को प्रकृति का
नियमोल्लंघन करते हुए देखा ? किसने गाय-भैंस को पाप करते हुए जाना ?
यंत्रचालित अति विशाल जहाज और महाबलवान रेल का इंजन जड़ हैं, वे हिलते हैं
और चलते हैं, परंतु वे जड़ हैं। और वह जो दूर से नन्हा सा कीड़ा अपने
जीवन की रक्षा के लिए रेल की पटरी से हट गया, वह क्यों चैतन्य है ?
यंत्र में इच्छा-शक्ति का कोई विकास नहीं है। यंत्र कभी नियम का उल्लंघन
करने की कोई इच्छा नहीं रखता। कीड़ा नियम का विरोध करना चाहता है और नियम
के विरुद्ध जाता है, चाहे उस प्रयत्न में वह सिद्धि लाभ करे या असिद्धि;
इसलिए वह चेतन है। जिस अंश में इच्छा-शक्ति के प्रकट होने में सफलता होती
है, उसी अंश में सुख अधिक होता है और जीव उतना ही ऊँचा होता है। परमात्मा
की इच्छा-शक्ति पूर्णरूप से सफल होती है, इसलिए वह उच्चतम है।
शिक्षा किसे कहते हैं ? क्या वह पठन-मात्र है ? नहीं। क्या वह नाना
प्रकार का ज्ञानार्जन है ? नहीं, यह भी नहीं। जिस संयम के द्वारा
इच्छा-शक्ति का प्रवाह और विकास वश में लाया जाता है और वह फलदायक होता
है, वह शिक्षा कहलाती है। अब सोचो कि शिक्षा क्या वह है, जिसने निरंतर
इच्छा-शक्ति को बलपूर्वक पीढ़ी दर पीढ़ी रोककर प्राय : नष्ट कर दिया है,
जिसके प्रभाव से नए विचारों की तो बात ही जाने दो, पुराने भी एक-एक करके
लोप होते चले जा रहे हैं; क्या वह शिक्षा है, जो मनुष्य को
धीरे-धीरेयंत्र बना रही है ? जो स्वयंचालित यंत्र के समान सुकर्म करता
है, उसकी अपेक्षा अपनी स्वतन्त्र इच्छा-शक्ति और बुद्धि के बल से अनुचित
कर्म करनेवाला मेरे विचार से श्रेयस्कर है। जो मनुष्य मिट्टी के पुतले
निर्जीव यंत्र या पत्थरों ढेर के सदृश हों, क्या उनका समूह समाज कहला
सकता है ? इस प्रकार का समाज कैसे उन्नत हो सकता है ? यदि इस प्रकार
कल्याण संभव होता, तो सैकड़ों वर्षों से दास होने के बदले हम पृथ्वी के
सब प्रतापी राष्ट्र होते, और यह भारत मूर्खता की खान होने के बदले,
विद्या के अनंत स्रोत का उत्पत्ति-स्थान होता।
तक क्या आत्मत्याग एक गुण नहीं है ? बहुतों के सुख के लिए आदमी के सुख
को बलिदान करना क्या सर्वश्रेष्ठ पुण्यकर्म नहीं है ? अवश्य है, परंतु
बांग्ला कहावत के अनुसार 'क्या घसने-माँजने से रूप उत्पन्न हो सकता है
? क्या धरने-बाँधने से प्रीति होती है ?' जो सदैव ही भिखारी है, उसके
त्याग में क्या गौरव ? जिसमें इंद्रिय-बल न हो, उसके इंद्रिय-संयम में
क्या गुण? जिसमें विचार का अभाव हो, हृदय का अभाव हो, उच्च अभिलाषा का
अभाव हो, जिसमें समाज कैसे बनता है--इस कल्पना का भी अभाव हो, उसका
आत्मत्याग ही क्या हो सकता है ? विधवा को बलपूर्वक सती करवाने में किस
प्रकार के सतीत्व का विकास दिखायी पड़ता है ? कुसंस्कारों की शिक्षा
देकर लोगों से पुण्यकर्म क्यों करवाते हो ? मैं कहता हूँ--मुक्त करो;
जहाँ तक हो सके लोगों के बंधन खोल दिए जाएं। क्या कीचड़ धोया जा सकता है
? क्या बंधन को बंधन से हटा सकते हैं ? ऐसा उदाहरण कहाँ है ? जब तुम सुख
की कामना समाज के लिए त्याग सकोगी, तब तुम भगवान बुद्ध बन जाओगी, तब तुम
मुक्त हो जाओगी, परंतु वह दिन दूर है। पुन:, क्या तुम समझती हो कि
अत्याचार द्वारा वह प्राप्त हो सकता है ? 'अरे, हमारी विधवाएँ
आत्मत्याग का कैसा उदाहरण होती हैं! बालविवाह कैसा मधुर होता है ? ऐसे
विवाह में पति-पत्नी में प्रेम को छोड़कर अन्य कोई भाव हो सकता है !!'
दबी आवाज से यह विलाप चारों ओर से सुनाई देता है। परंतु पुरुषों को,
जिन्हें इस अवस्था में प्रभुत्व प्राप्त है, आत्म-संयम की आवश्यकता
नहीं ! दूसरों की सेवा से बढ़कर कोई गुण हो सकता है ? परंतु यह तर्क
ब्राह्मणों पर लागू नहीं है--दूसरे लोग उसे करें ! सच तो यह है कि इस देश
में माता-पिता और संबंधी अपने स्वार्थ के लिए, और समाज के साथ एक प्रकार
का समझौता करके स्वयं को बचाने के लिए अपनी संतान तथा दूसरों के कल्याण
को निष्ठुरतापूर्वक बलिदान कर देते हैं और पीढ़ियों से चली आने वाली ऐसी
शिक्षा ने उनके मन को ऐसा थोथा बना दिया है कि यह कार्य बहुत आसानी से हो
जाता है। जो वीर है, वही सचमुच आत्मत्याग कर सकता है। कायर, कोड़े के डर
से, एक हाथ से आँसू पोंछता है और दूसरे हाथ से दान देता है। ऐसे दान का
क्या उपयोग ? विश्वव्यापी प्रेम इससे बहुत दूर है। छोटे पौधों को चारों
ओर से रूँधकर सुरक्षित रखना चाहिए। यदि एक व्यक्ति से नि:स्वार्थ प्रेम
करना सीखा जाए, तो यह आशा की जा सकती है कि धीरे-धीरेविश्वव्यापी प्रेम
उत्पन्न हो जाएगा। यदि एक विशेष इष्टदेवता की भक्ति प्राप्त हो सकती
है, तो सर्वव्यापक विराट् से धीरे-धीरे प्रेम उत्पन्न होना संभव है।
इसलिए जब हम एक व्यक्ति के लिए आत्मत्याग कर सकें, तब समाज के लिए
आत्मत्याग की चर्चा करना चाहिए, उससे पहले नहीं। सकाम बनने से ही
निष्काम बना जा सकता है। आरंभ से यदि कामना न होती तो उसका त्याग कैसे
होता ? और उसका अर्थ भी क्या होता ? यदि अंधकार न होता, तो प्रकाश का
क्या अर्थ हो सकता था ?
सप्रेम सकाम उपासना पहले आती है। छोटे की उपासना से आरंभ करो, बड़े की
उपासना स्वयं आ जाएगी।
माँ, तुम चिन्तित मत हो। प्रबल वायु बड़े वृक्षों से ही टकराती है। 'अग्नि
को कुरेदने से वह अधिक प्रज्वलित होती है।''साँप को सिर पर मारने से वह
अपना फन उठाता है' इत्यादि। जब हृदय में पीड़ा उठती है, जब शोक की आँधी
चारों ओर से घेर लेती है, जब मालूम होता है कि प्रकाश फिर कभी न होगा, जब
आशा और साहस का प्राय: लोप हो जाता है, तब इस भयंकर आध्यात्मिक तूफान में
ब्रह्म की अंत:र्ज्योति चमक उठती है। वैभव की गोद में पला हुआ, फूलों में
पोसा हुआ, जिसने कभी एक आँसू भी नहीं बहाया, क्या ऐसा कोई व्यक्ति कभी
बड़ा हुआ है, उसका अंतर्निहित ब्रह्मभाव कभी व्यक्त हुआ है ? तुम रोने
से क्यों डरती हो ? रोना न छोड़ो ! रोने से नेत्रों में निर्मलता आती है
और अंत:र्दृष्टि प्राप्त होती है। उस समय भेद की दृष्टि--मनुष्य, पशु,
वृक्ष आदि धीरे-धीरे लोप होने लगते हैं और सब स्थानों में और सब वस्तुओं
में, अनंत ब्रह्म की अनुभूति होने लगती है। तब--
समं पश्यन् हि सर्वत्र समवस्थितमीश्वरम्।
न हिनस्त्यात्मनात्मानं ततो याति परां गतिम्।।
--'सर्वत्र ही ईश्वर को समभाव से उपस्थित देखकर वह आत्मा को आत्मा से
हानि न पहुँचाकर परमगति को प्राप्त करता है।'
सदैव तुम्हारा शुभचिन्तक
विवेकानंद
(श्रीमती ओलि बुल को लिखित)
वैद्यनाथ, देवघर
२९ दिसंबर, १८९८
प्रिय धीरा माता,
यह आपको पहले ही विदित हो गया है कि मैं आपका साथ देने में समर्थ नहीं हो
सकूँगा। आपके साथ जाने लायक शारीरिक शक्ति मैं संचय नही कर पा रहा हूँ।
छाती में जो सर्दी जम चुकी थी, वह अभी तक विद्यमान है, और उसका फल यह है
कि उसने मुझे भ्रमण के योग्य नहीं रखा है। सच बात यह है कि यहाँ पर
क्रमश: मैं आरोग्य प्राप्त कर लूँगा, ऐसी मुझे आशा है।
मुझे यह पता चला है कि मेरी बहन विगत कुछ वर्षो से किसी विशेष संकल्प
को लेकर अपनी मानसिक उन्नति के लिए प्रयत्नशील है। बांग्ला साहित्य के
द्वारा जितना जाना जा सकता है- खासकर तत्त्वज्ञान के विषय में-उसने उसको
अधिगत कर लिया है और उसका परिणाम भी विशेष कम नहीं है। इस बीच में उसने
अपना नाम अंग्रेजी तथा रोमन अक्षरों में लिखना सीख लिया है। इस समय उसे
विशेष शिक्षा प्रदान करना मानसिक परिश्रम-सापेक्ष है; अत: उस कार्य से मैं
विरत हूँ। कोई कार्य किए बिना मैं समय बिताना चाहता हूँ एवं बलपूर्वक
विश्राम ले रहा हूँ।
अब तक मैंने आप पर केवल श्रद्धा ही की है, किंतु वर्तमान घटनाओं से ऐसा
प्रतीत हो रहा है कि महामाया ने आपको मेरी दैनिक जीवनचर्या पर दृष्टि रखने
के लिए नियुक्त किया है; अत: प्रेम के साथ ही प्रगाढ़ विश्वास भी हो गया
है। इसके आगे मैं अपने जीवन तथा कार्यप्रणाली के बारे में यह सोचूँगा कि
आपको माँ की आज्ञा मिल चुकी है, अत: सारा उत्तरदायित्व मेरे कंधे से
हटाकर आपके द्वारा महामाया जो निर्देश देंगी, उसे ही मैं मानता रहूँगा।
यूरोप अथवा अमरेरिका में शीघ्र ही मैं आपसे मिल सकूँगा,
आपकी स्नेहास्पद संतान,
विवेकानंद
(श्रीमती मृणालिनी बसु को लिखित)
देवघर, वैद्यनाथ,
३ जनवरी, १८९९
माँ,
तुम्हारे पत्र में कई एक अति कठिन प्रश्नों का जिक्र हुआ है। एक छोटे से
पत्र में उन सब प्रश्नों का विस्तारपूर्वक उत्तर देना संभव नहीं, परंतु
बहुत संक्षेप में उत्तर लिख रहा हूँ।
1. ऋषि मुनि, या देवता, किसी का भी सामर्थ्य नहीं कि वे सामाजिक नियमों
का प्रवर्तन करें। जब समाज के पीछे किसी समय की आवश्यकताओं का झोंका लगता
है, तब वह आत्मरक्षा के लिए आप ही आप कुछ आचारों की शरण लेता है। ऋषियों
ने केवल उन सभी आचारों को एकत्र कर दिया है, बस। जैसे आत्मरक्षा के लिए
मनुष्य कभी-कभी बहुत से ऐसे उपायों का प्रयोग करता है, जो उस समय तो
रक्षा पाने के लिए उपयोगी हों, परंतु भविष्य के लिए बड़े ही अहितकर
ठहरें, वैसे ही समाज भी बहुत अवसरों पर उस समय तो बच जाता है, पर जिस उपाय
से वह बचता है, वही अंत: में भयंकर हो जाता है।
जैसे, हमारे देश में विधवा-विवाह का निषेध। ऐसा न सोचना कि ऋषियों या
दुष्ट पुरुषों ने उन नियमों को बनाया है। यद्यपि पुरुष स्त्रियों को
पूर्णतया अपने अधीन रखना चाहते हैं, तो भी बिना समाज की सामयिक आवश्यकता
की सहायता लिए वे कभी कृतकार्य नहीं होते। इन आचारों में से दो विशेष
ध्यान देने योग्य हैं-
(क) छोटी जातियों में विधवा-विवाह होता है।
(ख) उच्च जातियों में पुरुषों की अपेक्षा स्त्रियों की संख्या अधिक है।
अब यदि हर एक लड़की का विवाह करना ही नियम हो, तो एक-एक लड़की के लिए एक
एक पति मिलना ही मुश्किल है, फिर दो-तीन कहाँ से आयें ? इसीलिए समाज ने एक
तरफ की हानि कर दी है, यानी जिसको एक बार पति मिल गया है, उसको वह फिर पति
नहीं देता; अगर दे तो एक कुमारी को पति नहीं मिलेगा। दूसरी तरफ देखो कि
जिन जातियों में स्त्रियों की कमी है, उनमें ऊपर लिखी बाधा न होने से
विधवा-विवाह प्रचलित है।
यही बात जाति-भेद तथा अन्य सामाजिक आचारों के संबंध में है।
पाश्चात्य देशों में कुमारियों को पति मिलना दिन पर दिन कठिन होता जा रहा
है। यदि किसी सामाजिक आचार को बदलना हो, तो पहले यही ढूँढ़ना चाहिए कि उस
आचार की जड़ में क्या आवश्यकता है, और केवल उसीके बदलने से वह आचार आप
ही आप नष्ट हो जाएगा। ऐसा किए बिना केवल निंदा या स्तुति से काम नहीं
चलेगा।
2. अब प्रश्न यह है कि क्या समाज के बनाये हुए ये नियम, अथवा समाज का
संगठन ही उस समाज के जनसाधारण के हितार्थ हैं ? बहुत से लोग कहते हैं कि
हाँ, पर कोई कोई कहते हैं कि ऐसा नहीं, कुछ मनुष्य औरों की अपेक्षा
अधिकशक्ति प्राप्त कर दूसरों को धीरे-धीरे अपने अधीन कर लेते हैं और कुछ
छल-बल या कौशल से अपना मतलब हासिल कर लेते हैं। यदि यह सच है, तो इस बात
का क्या अर्थ है कि अशिक्षित मनुष्यों को स्वाधीनता देने में डर रहता
है ? और फिर स्वाधीनता का अर्थ ही क्या है ?
मेरे तुम्हारे धन आदि छीन लेने में कोई बाधा न रहने का नाम तो स्वाधीनता
है नहीं, बल्कि तन, मन या धन का, बिना दूसरों को हानि पहुँचाये,
इच्छानुसार उपयोग करने ही का नाम स्वाधीनता है। यह तो मेरा स्वाभाविक
अधिकार है और उस धन, विद्या या ज्ञान को प्राप्त करने में समाज के
अंत:र्गत प्रत्येक व्यक्ति को समाज सुविधा रहनी चाहिए। दसूरी बात यह है
कि जो लोग कहते हैं कि अशिक्षित या गरीब मनुष्यों को स्वाधीनता देने से
अर्थात उनको अपने शरीर और धन आदि पर पूरा अधिकार देने तथा उनके वंशजों को
धनी और ऊँचे दर्जे के आदमियों के वंशजों की भाँति ज्ञान प्राप्त करने एवं
अपनी दशा सुधारने में समान सुविधा देने से वे उच्छृंखल बन जाएंगे, तो
क्या वे समाजकी भलाई के लिए ऐसा कहते हैं अथवा स्वार्थ से अंधे होकर?
इंग्लैंड में भी मैंने इस बात को सुना है कि अगर नीच लोग लिखना-पढ़ना सीख
जाएंगे, तो फिर हमारी नौकरी कौन करेगा?
मुट्ठी भर अमीरों के विलास के लिए लाखों स्त्री-पुरुष अज्ञता के अंधकार
और अभाव के नरक में पड़े रहें ! क्योंकि उन्हें धन मिलने पर या उनके
विद्या सीखने पर समाज उच्छृंखल हो जाएगा !!
समाज है कौन ? वे लोग जिनकी संख्या लाखों है ? या तुम और मुझ जैसे
दस-पाँच उच्च श्रेणीवाले ?
यदि यह सच भी हो, तो भी तुममें और मुझमें ऐसा घमंड किस बात का है कि हम और
सब लोगों को मार्ग बतायें ? क्या हम लोग सर्वज्ञ हैं ?
उद्धरेदात्मनात्मानम्- आप ही अपना उद्धार करना होगा। सब कोई अपने आपको
उबारे। सभी विषयों में स्वाधीनता, यानी मुक्ति की ओर अग्रसर होना ही
पुरुषार्थ है। जिससे और लोग शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक स्वाधीनता की
ओर अग्रसर हो सकें, उसमें सहायता देना और स्वयं उसी तरफ बढ़ना ही परम
पुरुषार्थ है। जो सामाजिक नियम इस स्वाधीनता के स्फुरण में बाधा डालते
हैं, वे ही अहितकर हैं और ऐसा करना चाहिए जिससे वे शीघ्र नष्ट हो जाएं।
जिन नियमों के द्वारा सब जीव स्वाधीनता की ओर बढ़ सकें, उन्हीं की
पुष्टि करनी चाहिए।
इस जन्म में दर्शन होते ही किसी व्यक्तिविशेष पर-चाहे वह वैसा गुणवान
भले ही न हो--हमारा जो हार्दिक प्रेम हो जाता है, उसे हमारे यहाँ के
पंडितों ने पूर्व जन्म का ही फल बतलाया है।
इच्छा-शक्ति के बारे में तुम्हारा प्रश्न बड़ा ही सुंदर है और यही समझने
योग्य विषय है। वासनाओं का नाश ही सभी धर्मों का सार है, पर इसके साथ
इच्छा का भी निश्चय नाश हो जाता है, क्योंकि वासना तो इच्छा विशेष ही का
नाम है। अच्छा, तो यह जगत क्यों हुआ ? और इन इच्छाओं का विकास ही क्यों
हुआ ? कई एक धर्मों का कहना है--बुरी इच्छाओं का ही नाश होना चाहिए, न कि
सदिच्छाओं का। इस लोक में वासना का त्याग परलोक में भोगों के द्वारा
पूर्ण हो जाएगा। अवश्य पंडित लोग इस उत्तर से संतुष्ट नहीं हैं। दूसरी
तरफ़ बौद्ध लोग कहते हैं कि वासना दु:ख की जड़ है और उसका नाश ही श्रेय
है। परंतु मच्छर मारते हुए आदमी ही को मार डालने की तरह, बौद्ध आदि मतों
के अनुसार दु:ख का नाश करने के प्रयत्न में हमने अपनी आत्मा को भी मार
डाला है।
सिद्धांत यह है कि हम जिसे इच्छा कहते हैं, वह उससे भी बढ़कर किसी अवस्था
का निम्न परिणाम है। 'निष्काम' का अर्थ है इच्छा-शक्तिरूप निम्न परिणाम
का त्याग और उच्च परिणाम का आविर्भाव। यह उच्च परिणाम मन बौर बुद्धि के
गोचर नहीं; परंतु जैसे देखने में मुहर रुपये और पैसे से अत्यंत भिन्न
होने पर भी हम निश्चित जानते हैं कि मुहर दोनों ही से श्रेष्ठ है, वैसे
ही वह उच्चतम अवस्था- उसे मुक्ति कहो या निर्वाण या और कुछ-मन बुद्धि के
गोचर न होने पर भी इच्छा आदि सब शक्तियों से बढ़कर है। यद्यपि वह 'शक्ति'
नहीं, तो भी शक्ति उसीका परिणाम है, इसीलिए वह बढ़कर है; यद्यपि वह इच्छा
नहीं, पर इच्छा उसी का निम्न परिणाम है, अत: वह उत्कृष्टतर है। अब समझ
लो, पहले सकाम,और आगे चलकर निष्काम रीति से ठीक ठीक इच्छा-शक्तिके उपयोग
का फल यह होगा कि इच्छा-शक्ति पहले से बहुत उन्नत दशा को पहुँच जाएगी।
गुरु-मूर्ति का पहले ध्यान करना पड़ता है, बाद में उसे लय कर
इष्ट-मूर्ति की स्थापना करनी पड़ती है। जिस पर भक्ति एवं प्रेम हो वही
इष्ट के रूप में ग्राह्य है।...
मनुष्य में ईश्वर-बुद्धि का आरोप करना बड़ा ही कठिन, पर सतत प्रयत्न
करने से अवश्य सफलता मिलती है। ईश्वर हर एक मुनष्य में विराजता है,
चाहे वह इसे जाने या न जाने; तुम्हारी भक्ति से उस ईश्वरत्व का उसमें
अवश्य ही उदय होगा।
तुम्हारा सदैव शुभाकांक्षी,
विवेकानंद
(कुमारी जोसेफिन मैक्लआड को लिखित)
मठ, बेलूड़
हावड़ा, बंगाल
प्रिय 'जो',
तुम अब तक न्यूयार्क पहुँच गई होगी और बहुत दिनों की अनुपस्थिति के बाद
फिर अपने स्वजनों के बीच हो। इस यात्रा में भाग्य ने प्रति पद पर
तुम्हारा साथ दिया है--यहाँ तक कि समुद्र भी शांत था और जहाज़ में
अवांछित-साथियों का भी सर्वथा अभाव था। किंतु, मेरी अवस्था ठीक विपरीत
रही। मुझे बहुत दु:ख है कि मैं तुम्हारे साथ क्यों गया। और न वैद्यनाथ
के वायु परिवर्तन से ही कोई लाभ हुआ। मैं तो वहाँ मृतप्राय हो गया था। आठ
दिनों तक दम घुटना रहा। मुझे उस अर्धमृतकावस्था में ही कलकत्ते लाया गया।
और यहाँ मैं पुनर्जीवन के लिए संघर्ष कर रहा हूँ।
डॉक्टर सरकार मेरा इलाज कर रहे हैं।
मैं अब पहले जैसा उदास नहीं हूँ। मैंने अपने भाग्य से समझौता कर लिया है।
यह वर्ष हमारे लिए बहुत कठिन प्रतीत हो रहा है। माँ ही सब कुछ अच्छी तरह
जानती हैं। योगानंद, जो माँ के घर में रहता था, गत मास से बीमार है और
समझो कि मृत्यु के द्वार पर ही है। माँ ही सब कुछ अच्छी तरह जानती हैं,
मैं फिर से काम में जुट गया हूँ। हालाँकि स्वयं कुछ नहीं करता। अपने
शिष्यों को भारत के कोने कोने में फिर एक बार अलख जगाने भेजा है। सबसे
बड़ी बात है--तुम जानती हो--कोष की कमी। अब तो तुम अमेरिका में हो, प्रिय
'जो'--हमारे यहाँ के काम के लिए कुछ कोष एकत्र करके भेजो न !
मैं मार्च तक स्वास्थ्य लाभ कर लूँगा और अप्रैल तक यूरोप के लिए
प्रस्थान कर दूँगा। फिर, सब कुछ माँ के हाथ में है।
मैंने जीवन में शारीरिक तथा मानसिक--दोनों कष्ट भोगे हैं। किंतु मुझ पर
माँ की असीम दया है। अपने प्राप्य से अधिक आनंद और आशीर्वाद मैंने
प्राप्त किया है। मैं माँ को असफल करने के लिए संघर्ष नहीं कर रहा हूँ,
बल्कि इसलिए कि वह मुझे सदा संघर्ष में रत पाएंगी। और लड़ाई के मैदान में
ही मैं अंतिम साँस लूँगा।
मेरा प्यार और आशीर्वाद।
तुम्हारा,
विवेकानंद
(कुमारी मेरी हेल को लिखित)
मठ, बेलूड़,
१६ मार्च, १८९९
प्रिय मेरी,
श्रीमती ऐडम्स को धन्यवाद कि तुम शैतान लड़कियों को अंतत: उन्होंने
पत्र लिखने के लिए उकसाया ही; 'आँखों से दूर, मन से दूर'--यह जितना भारत
में सत्य है, उतना ही अमेरिका में; और दूसरी युवती महिला जो भागते भागते
अपना प्यार छोड़ गई, लगता है वह गोता खिलाने के योग्य है।
हाँ, मैं अपने शरीर के साथ हिंडोले का खेल रहा हूँ। वह कई महाने से मुझे
विश्वास दिलाने का प्रयत्न कर रहा है कि उसका भी काफ़ी अस्तित्व है।
फिर भी कोई भय नहीं, क्योंकि मानसिक चिकित्सा में पारंगत चार बहनें मेरे
पास हैं, इस समय घबड़ाहट नहीं है। तुम लोग मुझे एक लंबा और ज़ोर का झटका
दो, तुम सब मिलकार; और फिर मैं उठ खड़ा हो जाऊँगा।
तुम अपने साल में एकवाले पत्र में मेरे विषय में इतना अधिक और उन चार
चुड़ैलों के विषय में इतना कम क्यों लिखती हो, जो शिकागो के एक कोने में
खौलती हुई देगची के ऊपर मन्त्र गुनगुनाती रहती हैं ?
क्या तुमने मैक्समूलर की नयी पुस्तक, 'रामकृष्ण : उनका जीवन एवं
उपदेश', (Ramkrishan: His Life and Teachings) देखी है ?
अगर तुमने उसे अभी तक न पढ़ा हो, तो पढ़ो और माँ को भी पढ़ाओ। माँ कैसी
हैं ? सफ़ेद हो रही है ? और फादर पोप? क्या तुम सोच सकती हो कि अमेरिका
से हमारे यहाँ अंतिम यात्री कौन थे ? 'ब्रदर, लव इज ए ड्राइंग कार्ड' एवं
'मिसेस मील'; वे आस्ट्रलिया एवं अन्य स्थानों में बहुत ही शानदार कार्य
कर रहे हैं; वे ही पुराने साथी (फ़ेलोज) -- अगर बदले भी हैं वे, तो किंचित
मात्र। मेरी इच्छा है कि तुम भारत की यात्रा करतीं,--वह भविष्य में ही
कभी हो सकेगी। हाँ मेरी, कुछ महीने पहले जब मैं तुम्हारी लंबी चुप्पी से
घबड़ा रहा था, तो मैंने सुना कि तुम एक 'विली' फँसा रही थीं; अत: नृत्य
एवं पार्टी आदि में व्यस्त थीं और इससे तुम्हारी लिखने मे असमर्थता
निश्चय ही समझ में आती है। परंतु 'विली' हों तो, न हों तो, यह मत भूलना
कि मुझे मेरे रुपये अवश्य मिलने चाहिए। हैरिएट को तो जब से अपना 'लड़का'
मिल गया है, समझदारी के साथ चुप लगा गई है; परंतु मेरे रुपये कहाँ हैं ?
उसको तथा उसके पति को इसकी याद दिलाना। अगर वे 'ऊली' (Wooley) हैं, तो मैं
चिपक जानेवाला बंगाली हूँ, जैसा कि अंग्रेजी हमें यहाँ पर कहा करते हैं-हे
ईश्वर मेरे रुपये कहाँ हैं ?
अंतत: गंगा-तट पर हमने एक मठ बना ही लिया; धन्यवाद है अमेरिका एवं
अंग्रेज़ मित्रों को। माँ से कहना कि वे सावधानी से देखती जाएं। तुम्हारी
यांकी भूमि को मैं अपने मूर्तिपूजक मिशनरियों द्वारा आप्लावित करने जा
रहा हूँ।
श्री ऊली से बताना कि वे बहन तो पा गए, लेकिन अभी तक उन्होंने भाई का
मूल्य नहीं चुकाया। क्योंकि बैठके में धूम्रपान-रत विचित्र वेष में यह
भूत जैसा काला मोटा आदमी था, जिसकी वजह से भयभीत होकर कितने प्रलोभन दूर
हो गए और अपने कारणों में यह भी एक था, जिससे ऊली को हैरिएट मिल सकी।
चूँकि इस कार्य में मेरा बहुत बड़ा योग है, अत: इसका मैं पारिश्रमिक चाहता
हूँ आदि-आदि। जोरों से मेरी वकालत करना, करोगी न ?
मैं कितना चाहता तो हूँ कि कुमारी 'जो' के साथ इस गर्मी में मैं अमेरिका आ
सकूँ; किंतु मनुष्य योजनाएँ बनाता है, और उन्हें विघटित कौन कर देता है
? विघटित करनेवाला सदैव ईश्वर नहीं होता है। अच्छा, जैसा चल रहा है चलने
दो। यहाँ पर अभयानंद, मेरी लुई को तुम जानती हो, आयी है, और उसका बंबई एवं
मद्रास में अच्छा स्वागत हुआ। कल वह कलकत्ते आ रही है, और हम भी उसका
शानदार स्वागत करेंगे।
मेरा स्नेह कुमारी 'हो', श्रीमती ऐडम्स, मदर चर्च, फ़ादर पोप तथा सात
सागर पार के मेरे अन्य सभी मित्रों को। हम सात सागरों में विश्वास करते
हैं -- क्षीर-सागर, मधु-सागर, दधि-सागर, सुरा-सागर, रस-सागर, लवण-सागर, और
एक नाम भूल रहा हूँ कि वह क्या है। तुम चारों बहनों के लिए मैं अपना
प्यार मधु-सागर के माध्यम से थोड़ा मद्य मिलाकर ताकि वह सुस्वादु बन
जाए, प्रेषित कर रहा हूँ।
सदा शुभेच्छु तुम्हारा भाई,
विवेकानंद
पुनश्च--नत्यों के मध्य जब समय मिले तो उत्तर देना।
वि.
बेलूड़ मठ,
११ अप्रैल, १८९९
प्रिय-,
दो वर्ष के शारीरिक कष्ट ने मेरी बीस वर्ष की आयु का हरण कर लिया है। ठीक
है, इससे आत्मा का कोई परिवर्तन नहीं होता है--क्या ऐसा होता है ? वह
आत्माविस्मृत आत्मा अपने भाव में विभोर होकर तीव्र एकाग्रता तथा
व्याकुलता के साथ उसी प्रकार अवस्थित है।...
तुम्हारा,
विवेकानंद
(श्रीमती सरला घोषाल को लिखित)
बेलूड़ मठ,
१६ अप्रैल, १८९९
श्रीमती जी,
आपका कृपापत्र पाकर मुझे अति हर्ष हुआ। यदि किसी ऐसे विषय के त्याग से,
जिससे मुझे या मेरे गुरु-भाइयों को विशेष प्रेम है, अनके सच्चे और
शुद्ध-चित्त देशभक्त हमारे कार्य में आकर सहायता करेंगे, तो विश्वास
रखिए कि हम ऐसे त्याग से तनिक भी न झिझकेंगे, आँसू की एक भी बूँद न
बहाएंगे--और यह हम अपने व्यवहार में चरितार्थ करके दिखा सकते हैं। परंतु
अभी तक ऐसे किसी व्यक्ति को सहायता करने के लिए अग्रसर होते मैंने नहीं
देखा। कुछ लोगों ने केवल अपने प्रिय शौक को हमारे से बदलने का प्रयत्न
किया है--बस, इतना ही है। यदि हमारे देश की अथवा मनुष्य जाति की
वास्तविक सहायता होती हो तो गुरु-पूजा त्यागने की क्या बात है, हम कोई
भी घोर पाप करने को या ईसाईयों की 'अनंतकाल तक नरक-यातना' भोगने को भी
तैयार हैं। परंतु मनुष्य का अध्ययन करते करते मेरे सिर के बाल सफ़ेद हो
गए हैं। यह संसार एक अत्यंत दु:खप्रद स्थान है। बहुत दिनों से एक ग्रीक
दार्शनिक के समान दीपक हाथ में लेकर मैंने घूमना आरंभ कर दिया है। एक
सर्वप्रिय गीत, जो मेरे गुरु सदैव गाते थे, मुझे इस समय याद आ रहा है :
दिल जिससे मिलता है,
वह जन अपने नयनों से परिचय देता।
हैं तो ऐसे दो-एक जन,
जो करते विचरण,
जग की अनजानी राहों पर।
इतना ही कहना है। कृपया यह जानिये कि इसमें एक शब्द की भी अतिशयोक्ति
नहीं है-आप भी इसे यथार्थ रूप में पाएंगी।
परंतु मुझे उन देशभक्तों पर कुछ संदेह है, जो हमारा साथ तभी देने को
तैयार हैं, जब हम अपनी गुरु-पूजा त्याग दें। अच्छा, यदि वे अपने देश की
सेवा में सचमुच इतना उद्योग और परिश्रम कर रहे हैं कि प्राय: मृतप्राय से
हुए जाते हैं, तो प्रश्न यह उठता है कि सिर्फ गुरु-पूजा की ही एक समस्या
से उनका सारा काम कैसे रुक जाता है।...
क्या वह प्रबल तरंगशालिनी नदी, जिसके वेग से मानो पहाड़, पर्वत बहे जा
रहे थे, गुरु-पूजा मात्र से हिमालय की ओर लौटायी जा सकती थी ? क्या आप
समझती हैं कि इस प्रकार की स्वदेश-भक्ति से कोई महान कार्य सिद्ध हो सकता
है या इस तरह की सहायता से कोई विशेष उपकार हो सकता है ? शायद आप ही लोग
इसको समझती हों। मैं तो कुछ नहीं समझता। एक प्यासे को इतना जल-विचार, भूख
से मृतप्राय व्यक्ति का यह अन्न-विचार एवं यह नाक-भौं सिकोड़ना ! मुझे
ऐसा लगता है कि वे लोग 'ग्लास-केस' के अंदर रखने योग्य हैं; कार्य के
समय वे लोग जितना ही पीछे रहें, उतना ही उनका कल्याण है।
प्रीत न माने जात-कुजात।
भूख न माने बासी भात।।
किंतु इसमें सब मेरी भूल हो सकती है। यदि गुरु-पूजा रूपी गुठली के गले में
फँसने से सब मरने लगें, तो यही अच्छा है कि गुठली को ही छोड़ दिया जाए।
खैर, इस विषय पर विस्तारपूर्वक आपसे बातचीत करने की मेरी अत्यंत अभिलाषा
है। ये सब बातें करने के लिए रोग, शोक एवं मृत्यु ने मुझको अब तक अवसर
दिया है--एवं विश्वास है कि वे आगे भी देंगे।
इस नववर्ष में आपकी संपूर्ण कामनाएँ पूर्ण हों।
किमधिकमिति,
विवेकानंद
(खेतड़ी के महाराज को लिखित)
मठ, आलमबाज़ार
१४ जून, १८९९
प्रिय मित्र,
मैं यहाँ जिस अवस्था में हूँ--चाहता हूँ कि श्रीमान भी उसी अवस्था में
रहें। अभी आपको मित्रता और प्यार की अत्यंत आवश्यकता है।
मैंने कई सप्ताह पहले आपको एक पत्र लिखा था, किंतु आपका कोई संवाद नहीं
मिला। आशा है, आपका स्वास्थ्य बहुत अच्छा चल रहा होगा। मैं इसी महीने
की २० तारीख को फिर इंग्लैंड की यात्रा कर रहा हूँ।
समुद्रयात्रा के संभवत: कुछ लाभ हो, इसकी भी आशा मुझे है।
आप सभी संकटों से संरक्षित रहें और समस्त शुभ की छाया आप पर सदा बनी रहे।
आपका,
विवेकानंद,
पुनश्च--जगमोहन को मेरा प्यार और अलविदा !
(श्री ई. टी. स्टर्डी को लिखित)
पोर्ट सईद,
१४ जुलाई, १८९९
प्रिय स्टर्डी,
अभी-अभी तुम्हारा पत्र ठीक-ठीक आ पहुँचा। पेरिस के एम. नोबल का भी एक
पत्र मिला है। कुमारी नोबल को अमेरिका से कई पत्र मिले हैं।
एम. नोबल ने लिखा है कि उनको दीर्घकाल तक बाहर रहना होगा; अत: उन्होंने
मुझे लंदन से पेरिस में अपने यहाँ आने की तिथि को पीछे हटा देने के लिए
लिखा है। तुम्हें यह निश्चित रूप से पता है कि इस समय लंदन में मेरे
मित्रों में से अधिकांश लोग नहीं हैं; कुमारी मैक्लिऑड मुझे जाने के लिए
बहुत ही जोर दे रही है। साथ ही मेरी आयु भी समाप्त हो रही है--खासकर इस
बात को सत्य मानकर ही मुझे चलना होगा। मेरा वक्तव्य यह है कि यदि हमें
अमेरिका में वस्तुत: कुछ करना हो, तो अपनी सारी बिखरी हुई शक्ति केंद्रित
करने का सबसे अच्छा अवसर यही है--अगर हम उन्हें यथार्थ रूप से
सुनियंत्रित न कर सकें तो भी। तब कुछ महीनों के बाद मुझे इंग्लैंड लौटने
का अवसर प्राप्त होगा एवं भारतवर्ष लौटने के पूर्व तक दत्तचित्त होकर मैं
कार्य कर सकूँगा।
मैं समझता हूँ कि अमेरिका के कार्यों को समेटने के लिए तुम्हारा आना
नितांत आवश्यक है। अत : यदि संभव हो, तो मेरे साथ ही तुम्हारा आना उचित
है। मेरे साथ तुरीयानंद जी हैं। सारदानंद का भाई बोस्टन जा रहा है।...यदि
तुम अमेरिका न भी आ सके, तो भी मेरा जाना उचित है--तुम्हारी क्या राय है
?
तुम्हारा,
विवेकानंद
(कुमारी जोसेफ़िन मैक्लिऑड को लिखित)
दि लिम्स,
वुड साइड्स, विम्बिल्डन,
३ अगस्त, १८९९
प्रिय 'जो',
आखिर हमें चैन मिली। मुझे एवं तुरीयानंद को यहाँ रहने का सुंदर स्थान मिल
गया है। सारदानंद का भाई कुमारी नोबल के साथ है और अगले सोमवार को वह
प्रस्थान कर रहा है।
समुद्र-यात्रा से मेरे स्वास्थ्य में काफी सुधार हुआ है। यह डम्बलों
के साथ व्यायाम करने और मानसूनी तूफ़ान के द्वारा लहरों में टक्कर खाते
स्टीमर से ही हुआ। क्या यह विचित्र बात नहीं है ? आशा है कि यह ऐसा ही
चलेगा। हमारी माँ--भारत की पूज्या ब्राह्मणी गाय, कहाँ है ? मैं समझता
हूँ कि वह तुम्हारे साथ न्यूयार्क में है।
स्टर्डी, श्रीमती जॉनसन एवं और सब लोग बाहर हैं। इससे मार्गो चिन्तित है।
वह अगले महीने तक अमेरिका (संयुक्तराज्य) नहीं आ सकती है। मैं धीरे-धीरे
समुद्र से स्नेह करने लग गया हूँ। मत्स्यावतार मेरे ऊपर है, ऐसा मुझे
भान होता है; मुझ बंगाली को ऐसा विश्वास है कि उसकी प्रचुर मात्रा मुझमें
है।
अल्बर्टा के हाल-चाल क्या हैं... बूढ़े लोग और अन्य लोग कैसे हैं ?
श्रीमती ब्रेर रैबिट का एक सुंदर पत्र मुझे मिला था; वह हमसे लंदन में
नहीं मिल सकीं; हम लोगों के पहुँचने के पहले ही वह प्रस्थान कर चुकी थीं।
यहाँ पर सुहावना और गर्म है; या जैसा लोग कहते हैं, बहुत गर्म। मैं इस समय
एक शून्यवादी हो गया हूँ, जो 'शून्य' या 'कुछ नहीं' में विश्वास करता
है। कोई योजना नहीं, कोई अनुचिंता नहीं, किसी भी काम के लिए प्रयत्न
नहीं, पूर्ण रूपेण मुक्त। अच्छा 'जो', स्टीमर पर जब कभी मैंने
तुम्हारी या देव-गाय की निंदा की, मार्गो ने सदा तुम्हारा पक्ष लिया।
बेचारी बच्ची, उसको क्या पता ! 'जो' इन सबका यही तात्पर्य है कि लंदन
में कोई कार्य नहीं हो सकता, क्योंकि तुम यहाँ नहीं हो। तुम मेरा भाग्य
जान पड़ती हो ! पीसे जाओ, बूढ़ी देवी, यह कर्म है और कोई इससे बच नहीं
सकता। कहा जा सकता है कि इस समुद्र-यात्रा से मैं वर्षों छोटा नजर आ रहा
हूँ। केवल जब हृदय धक्का देता है, तभी मुझे अपनी अवस्था का भान होता है।
हाँ, तो यह अस्थि-चिकित्सा (Osteopathy) क्या है ? क्या मेरा उपचार
करने के लिए वे एक-दो पसली काटकर अलग कर देंगे। मैं कभी नहीं होने दूँगा,
निश्चित ही मेरी पसलियों से ... की रचना नहीं होने की। मेरी हड्डियाँ गंगा
में मूँगे बनने के लिए निर्मित हैं। अगर प्रतिदिन तुम मुझे एक पाठ पढ़ाओ,
तो अब मैं फ्रेंच पढ़ सकता हूँ, लेकिन व्याकरण से कुछ वास्ता नहीं --मैं
केवल पढ़ूँगा और तुम उसकी अंग्रेजी में व्याख्या करना। कृपया अभेदानंद
को मेरा स्नेह देना और तुरीयानंद के स्थान पर तैयार रहने के लिए कहना।
मैं उसके साथ प्रस्थान करूँगा। शीघ्र लिखना।
सस्नेह,
विवेकानंद
(कुमारी मेरी हेल्बॉयस्टर को लिखित)
द्वारा कुमारी नोबल,
२१ए, हाई स्ट्रीट, विंबल्डन,
अगस्त, १८९९
प्रिय मेरी,
मैं फिर लंदन में हूँ। इस बार कोई व्यस्तता नहीं, किसी चीज़ के लिए
उतावलापन नहीं; एक कोने में शांतिपूर्वक बैठ गया हूँ--अवसर मिलते ही
अमेरिका प्रस्थान करने की प्रतीक्षा में हूँ। मेरे प्राय: सभी मित्र लंदन
से बाहर हैं--ग्रामों या अन्य स्थानों में, एवं मेरा स्वास्थ्य भी
पर्याप्त रूप से ठीक नहीं है।
तुम अब तक 'राजयोग' का अनुवाद समाप्त न कर सकीं--ठीक है, कोई जल्दी नहीं
है। तुम जानती हो कि अगर इसे पूरा होना है, तो समय एवं अवसर अवश्य आएगा,
अन्यथा हम व्यर्थ ही प्रयत्न करते हैं।
अपने लघु किंतु प्रबल ग्रीष्म में कनाडा आजकल अवश्य ही सुंदर हो रहा
होगा, और स्वास्थ्यप्रद भी।
कुछ सप्ताह में मैं न्यूयार्क में होने की आशा करता हूँ और इसके आगे
क्या होगा मुझे मालूम नहीं। आगामी वसंत में मैं इंग्लैंड फिर आने की आशा
करता हूँ। यह मेरी उत्कट अभिलाषा है कि कोई आपदा किसीके भी पास न फटके,
लेकिन आपदा ही एक ऐसी वस्तु है, जो हमें अपने जीवन की गहराइयों में
अंत:र्दृष्टि प्रदान करती है। क्या यह ऐसा नहीं करती ?
अंत:र्वेदना के क्षणों में सदा के लिए जकड़े द्वार खुलते प्रतीत होते हैं
और प्रकाश का एक प्रवाह अंदर प्रविष्ट होता प्रतीत होता है।
अवस्था के साथ साथ हम सीखते चलते हैं। खेद की बात है कि यहाँ हम अपने
ज्ञान का उपयोग नहीं कर पाते। जिस क्षण हमें लगता है कि हम सीख रहे हैं,
उसी क्षण रंगमंच से जल्दी से हटा दिए जाते हैं। और यह माया है !
यदि हम ज्ञानी खिलाड़ी हों, तो नक़ली संसार की यहाँ कोई सत्ता नहीं होगी,
यह खेल आगे चले ही न। आँखों में पट्टी बाँधे हमें खेलना होगा। हममें से
किसी ने इस नाटक में खलनायक की भूमिका ली है और किसी ने नायक की--कदापि
चिंता न करो, यह सब एक नाटक है। यही एक सांत्वना है। रंगमंच पर क्या नहीं
है-वहाँ दैत्य हैं, सिंह हैं, चीते हैं, लेकिन उन सबका मुँह बँधा है। वे
उछलते हैं, लेकिन काट नहीं सकते। संसार हमारी आत्मा का स्पर्श नहीं कर
सकता है। यदि तुम चाहो, तो टुकड़े-टुकड़े हो गए एवं रक्त बहते शरीर में
भी तुम अपने मन में महत्तम शांति का आनंद लेती रह सकती हो।
और इसका यही एक मार्ग है कि आशाहीनता को प्राप्त किया जाए। क्या उसका
तुम्हें ज्ञान है ? यह नैराश्य की जड़-बुद्धि नहीं है, यह तो एक विजेता
की उन वस्तुओं के प्रति अवज्ञा है, जिनको उसने प्राप्त कर लिया है,
जिनके लिए उसने संघर्ष किया है और फिर जिनको अपने महत्त्व की तुलना में
नगण्य समझकर ठुकरा दिया है। इस आशाहीनता, इच्छाहीनता, उदे्दश्यहीनता का
ही प्रकृति के साथ सामंजस्य है। प्रकृति में कोई सामंजस्य नहीं, कोई
तर्क नहीं, कोई क्रम नहीं; उसमें पहले भी अस्तव्यस्तता थी, अब भी है।
निम्नतम मनुष्य भी अपने पार्थिव मन के द्वारा प्रकृति के साथ एकलय है;
उच्चतम भी अपने पूर्ण ज्ञान के साथ वैसा ही है। ये तीनों ही
उद्देश्यहीन, स्वछंद एवं आशारहित हैं-तीनों ही सुखी हैं।
तुम एक गप्पी पत्र की आशा करती हो, है न यह बात ? गप्पों के लिए मेरे
पास कोई अधिक सामग्री नहीं है। अंतिम दो दिन श्री स्टर्डी आए थे। कल वे
वेल्स--अपने घर जा रहे हैं।
दो-एक दिन में न्यूयार्क-यात्रा के लिए मुझे टिकट लेने हैं।
कुमारी साउटर एवं मैक्स गिसिक के सिवा अब तक यहाँ लंदन में जो पुराने
मित्र हैं, उनमें किसी से भी मैं नहीं मिला हूँ। वे सदा की भाँति बहुत ही
सहृदय रहे हैं।
चूँकि अब तक लंदन के विषय में मुझे कुछ भी मालूम नहीं, इसलिए मेरे पास
तुम्हारे लिए कोई समाचार नहीं है। मुझे पता नहीं कि गरट्रुड आर्चाड कहाँ
है, अन्यथा मैंने उसे लिखा होता। कुमारी केट स्टील भी बाहर है। वह
वृहस्पति या शनिवार को आनेवाली है।
मुझे पेरिस में ठहरने के लिए एक मित्र का निमंत्रण मिला है, वे एक अच्छे
पढ़े-लिखे भद्र फ्रांसीसी हैं, लेकिन इस बार मैं नहीं जा सका। कभी फिर,
कुछ दिन के लिए मैं उनके साथ रहने की आशा करता हूँ। मैं अपने कुछ पुराने
मित्रों से मिलने एवं उनसे नमस्कार-प्रणाम करने की आशा करता हूँ।
निश्चय ही तुमसे अमेरिका में मिलने की आशा है। या तो अपने पर्यटन के
सिलसिले में मैं अप्रत्याशित ही ओटावा आ सकता हूँ या तुम्हीं न्यूयार्क
आ जाओ।
शुभेच्छा, तुम्हारा मंगल हो।
भगवत्पदाश्रित,
विवेकानंद
(स्वामी ब्रह्मानंद को लिखित)
लंदन,
१० अगस्त १८९९
अभिन्नहृदय,
तुम्हारे पत्र से बहुत समाचार विदित हुए। जहाज़ में मेरा शरीर ठीक था;
किंतु जमीन पर उतरने के वाद पेट में वायु की शिकायत होने के कारण कुछ खराब
है। यहाँ पर बड़ी गड़बड़ी है--गर्मी के दिन होने के कारण मित्र लोग भी
बाहर गए हुए हैं। इसके अलावा शरीर भी साधारणतया ठीक नहीं है एवं भोजन आदि
के विषय में भी बहुत सी असुविधाएँ हैं। अत: दो-चार दिन के अंदर अमेरिका
रवाना हो रहा हूँ। श्रीमती बुल को हिसाब भेज देना-ज़मीन, मकान तथा भोजन
इत्यादि पर कितना खर्च हुआ है, प्रत्येक विषय का विवरण पृथक पृथक हो।
सारदा ने लिखा है कि पत्रिका अच्छी प्रकार से नहीं चल रही है। मेरे भ्रमण
वृत्तांत को पर्याप्त विज्ञापन देकर छापें तो सही-देखते देखते ग्राहकों
की बाढ़ सी आ जाएगी। पत्रिका के तीन-चौथाई हिस्से में केवल सिद्धांत की
बातें छापने से क्या वह लोकप्रिय हो सकती है ?
अस्तु, पत्रिका पर सतर्क दृष्टि रखना। समझ लेना कि मानो मैं चल बसा हूँ।
यह समझकर तुम लोग स्वतंत्रता के साथ कार्य करते रहो। 'रुपया-पैसा,
विद्याबुद्धि सब कुछ दादा पर निर्भर है'--ऐसा समझने से सर्वनाश निश्चित
है। यदि सब धन,यहाँ तक कि पत्रिका के लिए भी, मैं एकत्र करूँगा, लेख भी
मेरे ही होंगे, तो फिर तुम सब लोग क्या करोगे ? फिर अपने साहब लोग क्या
कर रहे हैं ? मैंने अपनी भूमिका अदा कर दी है। तुम लोगों से जो बने करो।
वहाँ न तो कोई एक पैसा ला सकता है और न प्रचार ही कर सकता है, अपने ही
कार्य को संचालित करने की बुद्धि किसीमें नहीं है, एक पंक्ति भी लिखने में
कोई समर्थ नहीं है एवं बेकार ही सब लोग महात्मा हैं !...तुम लोगों की जब
यह दशा है, तब तो मैं चाहता हूँ कि छ: महीने के लिए कागज-पत्र,
रुपये-पैसे, प्रचार इत्यादि सब कुछ नवागतों को सौंप दो। वे भी यदि कुछ न
कर सकें, तो सब बेच-बाच कर जिनके जो रुपये हैं,उन्हें उनकी रक़म वापस कर
फकीर बन जाओ। मठ का कोई समाचार मुझे नहीं मिलता है। शरत् क्या कर रहा है
? मैं कार्य चाहता हूँ। मरने से पहले मैं यह देखना चाहता हूँ कि आजीवन
कष्ट उठाकर मैंने जो ढाँचा खड़ा किया, वह किस प्रकार चल रहा है।
रुपये-पैसे के प्रत्येक मामले में समिति से परामर्श कर लेना। प्रत्येक
खर्च के लिए समिति की स्वीकृति प्राप्त कर लेना। नहीं तो तुम्हें
बदनामी मोल लेनी पड़ेगी ! जो लोग रुपये देते हैं, वे एक न एक दिन हिसाब
अवश्य जानना चाहेंगे-ऐसी ही रीति है। हर समय हिसाब तैयार न रखना बहुत ही
खराब बात है।... प्रारंभ में ऐसी शिथिलता से ही लोग बेईमान बन जाते हैं।
मठ में जो लोग हैं, उनको लेकर एक समिति का गठन करो और प्रत्येक खर्च के
लिए उनकी स्वीकृति ली जाए, उसके बिना कोई भी खर्च नहीं किया जा सकेगा।
मैं कार्य चाहता हूँ, उद्यम चाहता हूँ--चाहे कोई मरे अथवा कोई जिये !
संन्यासी के लिए मरना-जीना क्या है ?
शरत् यदि कलकत्ते को जाग्रत न कर सके...तुम यदि इस वर्ष के अंदर बुनियाद
खड़ी न कर सके तो देखना कैसा तमाशा होगा ! मैं कार्य चाहता हूँ--किसी
प्रकार का पाखंड नहीं। परमाराध्या माता जी को मेरा साष्टांग प्रणाम।
सस्नेह तुमहारा,
विवेकानंद
रिजले,
२ सितंबर, १८९९
प्रिय-,
जीवन संघर्षों एवं भ्रान्तियों की समष्टि मात्र है।... जीवन का रहस्य भोग
नहीं है, किंतु अनुभव के द्वारा शिक्षा प्राप्त करना है। किंतु हाय, जिस
क्षण हम लोगों की वास्तविक शिक्षा प्रारंभ होती है, उसी क्षण हम लोगों का
बुलावा आ जाता है। इसीको बहुत से लोग परजन्म के अस्तित्व का प्रबल
प्रमाण मानते हैं।.... सर्वत्र ही कार्यों में एक तूफ़ान उठना मानो एक
अच्छी ही बात है। उससे सब कुछ स्वच्छ हो जाता है तथा उस कार्य का असली
रूप सबके सामने स्पष्ट हो उठता है। पुन: उसका निमार्ण किया जाता है,
किंतु उसकी आधारशिला दुर्भेद्य पत्थर की होती है।
तुम्हारा शुभेच्छु,
विवेकानंद
(श्रीमती ओलि बुल को लिखित)
रिजले मॅनर,
४ सितंबर, १८९९
प्रिय माँ,
इधर पिछले छ: महीनों से मैं भाग्य के दुश्चक्र की चरमावस्था में रहा
हूँ। जहाँ कहीं भी जाता हूँ दुर्भाग्य मेरा पीछा नहीं छोड़ता। लगता है कि
इंग्लेण्ड में स्टर्डी अपने काम से ऊब गया है, हम भारतीयों में वह कोई
तपस्विता नहीं पा रहे हैं। यहाँ ज्यों ही मैं पहुँचता हूँ, ओलिया को तेज
दौरा हो जाता है।
क्या मैं आपके पास शीघ्र पहुँच जाऊँ ? मैं जानता हूँ कि मैं आपकी कुछ
अधिक सहायता नहीं कर पाऊँगा, परंतु अधिक से अधिक उपयोगी हो सकने का
प्रयत्न करूँगा।
आशा है कि आपका सब कुछ शीघ्र ही ठीक हो जाएगा और इस पत्र के पहुँचने के
पहले ही ओलिया पूर्णरूप से स्वस्थ हो जाएगी। 'माँ' को सब विदित है। मेरे
विषय में यही सब कुछ है।
सतत सस्नेह भवदीय,
विवेकानंद
(कुमारी मेरी हेल को लिखित)
रिजले मॅनर
(?) सितंबर, १८९९
प्रिय मेरी,
हाँ, मैं पहुँच गया। ग्रीनेकर से मुझे ईसाबेल का एक पत्र मिला था। आशा है
कि मैं शीघ्र ही हैरिएट एवं उससे मिलूंगा। हैरिएट डब्ल्यू. समान रूप से
मौन रहे हैं। चिंता मत करो, मैं अपने अवसर की प्रतीक्षा करूँगा और श्री
वूली के करोड़पति बन जाते ही अपने पैसे की माँग करूँगा। तुमने मदर चर्च
एवं फ़ादर पोप के विषय में कोई बात नहीं लिखी, केवल मेरे विषय में
समाचारपत्रों में प्रकाशित कुछ खबरें लिखी हैं। बहुत पहले से मैंने
समाचारपत्रों में दिलचस्पी लेना छोड़ दिया, वे मुझे केवल जनता के सम्मुख
बनाये रखते हैं और इससे किसी तरह, जैसे तुमने लिखा है, मेरी किताबों की
कुछ बिक्री हो जाती है। क्या तुम जानती हो कि मैं अब क्या करने का
प्रयत्न कर रहा हूँ। मैं भारत एवं उसकी जनता के विषय में एक किताब लिख
रहा हूँ--कुछ लघु,सरल, चलता। मैं पुन: फ्रेंच सीखने जा रहा हूँ। अगर इस
वर्ष ऐसा करने में मैं असफल हुआ, तो अगले वर्ष मैं पेरिस-प्रदर्शनी ढंग से
देख नहीं पाऊँगा। यहा मैं अधिक फ्रेंच सीखने की आशा करता हूँ, जहाँ नौकर
भी फ्रेंच में बातचीत करते हैं।
तुमने क्या कभी श्रीमति लेगेट से मुलाक़ात की ? वह तो एकदम भव्य हैं।
उनके अतिथि के रूप में मैं अगले साल पेरिस जा रहा हूँ, जैसे कि मैं पहली
बार गया था।
कार्य-संचालन के केंद्र के रूप में तथा दर्शन-शिक्षा एवं धर्म के
तुलनात्मक अध्ययन के लिए अब मैंने गंगा-तट पर एक मठ की स्थापना कर ली
है।
इधर तुम क्या करती रहीं ? पढ़ती रही हो ? लिखती रही हो ? तुमने कुछ नहीं
किया। इस समय तक तुम बहुत कुछ लिख सकती थीं। अगर तुम केवल मुझे फ्रेंच ही
पढ़ा पाती, तो अब तक मैं बहुत अंशों में फ्रेंच हो गया होता और तुमने यह
नहीं किया, केवल मुझे बकवास करने की प्रेरणा दी। तुम कभी ग्रीनेकर भी नहीं
गईं। आशा है कि वह हर वर्ष पुष्ट होता जा रहा है।
ईसाई-विज्ञान के २४ फु़ट और ६०० पौंडों की तुम अपनी चिकित्सा से मुझे
अच्छा नहीं कर पायीं। तुम्हारी चिकित्सा-शक्ति के प्रति मैं अपना
विश्वास खोता जा रहा हूँ। सैम (Sam)कहाँ है ? इधर सारे समय शक्तिभर
सावाधान रह सकनेवाला वह, कितना सुशील बालक है, उसके हृदय के लिए साधुवाद।
शीघ्रता से मेरे बाल सफेद हो रहे थे, लेकिन किसी तरह रुक गए। मुझे खेद है
कि अब थोड़े से ही सफ़ेद बाल हैं, यद्यपि अनुसंधान करने से बहुत से प्रकाश
में आ जाएंगे। मैं इसको पसंद करता हूँ और बकरे की तरह एक लंबा सफेद नूर
उगाने जा रहा हूँ। यूरोप में मदर चर्च एवं फादर पोप अच्छे ढंग से समय
बिता रहे हैं। स्वेदश लौटते समय मैंने इसका कुछ आभास पाया। और तुम शिकागो
में सिण्डारेला नृत्य में व्यस्त हो-यह तुम्हारे लिए कितनी अच्छी
बात है। इन बूढ़ों को अगले साल पेरिस जाने और तुमको अपने साथ ले लेने के
लिए राजी करो। वहाँ देखने के लिए बहुत से अद्भुत दृश्य होंगे। दुकान बंद
करने के पूर्व फ्रांसीसी अंतिम एवं महान प्रयत्न कर रहे हैं--ऐसा लोग
कहते हैं।
बहुत, बहुत दिनों से तुमने मेरे पास कोई पत्र नहीं भेजा, ठीक है न। इस
पत्र को पाने की तुम पात्री नहीं हो, लेकिन तुम जानती ही हो कि मैं कितना
भला हूँ--और विशेषतायया इसलिए कि मृत्यु करीब आ रही है, मैं किसीसे झगड़ा
करना नहीं चाहता। एवं हैरियट से मिलने के लिए मैं मर रहा हूँ। मुझे यह आशा
है कि ग्रीनेकर सराय में उन लोगों की रोग-निवारण की शक्ति और बढ़ गई है और
वे मुझे इस वर्तमान अवनति से उबारने में सहायता करेंगी। मेरे जमाने में इस
सराय में आध्यात्मिक आहार अधिक मात्रा में मौजूद थे और भौतिक सामग्री की
मात्रा कम थी। अस्थि-चिकित्सा विज्ञान के विषय में क्या तुम कुछ जानती
हो ? यहाँ न्यूयार्क में एक ऐसे व्यक्ति हैं, जो सचमुच अद्भुत कार्य कर
रहे हैं।
एक सप्ताह के भीतर मैं उनसे अपनी हड्डियों की परीक्षा कराने जा रहा हूँ।
कुमारी 'हो' कहाँ है ? वह कितनी भद्र और कितनी अच्छी मित्र हैं। हाँ, तो
मेरी, यह कितनी विचित्र बात है कि तुम्हारे परिवार, मदर चर्च और उनके
पादरी ने--मठवासी और लौकिक दोनों प्रकार के--मेरे ऊपर किसी अन्य परिवार
की अपेक्षा, जिसे मैं जानता हूँ, अधिक प्रभाव डाला है। ईश्वर सतत
तुम्हारा कल्याण करे। इस समय मैं आराम कर रहा हूँ और लेगेट-दंपत्ति
कितने उदार हैं कि मुझे घर जैसा लग रहा है। ड्यूई-जुलूस देखने के लिए मैं
न्यूयार्क जाने की सोच रहा हूँ। मैंने वहाँ के अपने मित्रों से मुलाकात
नहीं की है।
अपने विषय में सब बातें मुझे बताना। मैं सुनने के लिए बहुत इच्छुक हूँ।
तुम 'जो' को तो जानती हो। मैंने अपनी लगातार बीमारी से उनकी भारत-यात्रा
में विघ्न उपस्थित कर दिया, किंतु वे बहुत ही क्षमाशील एवं सज्जन हैं।
वर्षों से श्रीमती बुल और वे मेरी अभिभावक देवदूत रही हैं। आगामी सप्ताह
में श्रीमती बुल के यहाँ आने की आशा है।
वे यहाँ पहले आ गई होतीं, लेकिन उनकी पुत्री (ओलिया) को बीमारी का दौरा
चलता रहा। उसने बहुत कष्ट झेला, लेकिन अब ख़तरे से बाहर है। यहाँ पर
श्रीमती बुल ने लेगेट के कुटीरों मे से एक ले रखा है और यदि शीत ऋतु का
आगमन समय से पहले नहीं होता, तो हम यहाँ अभी एक महीने तक आनंद उठा सकते
हैं। स्थान कितना मनोरम है-उपवनों एवं लॉनों से सुयुक्त।
एक दिन मैंने गॉल्फ खेलने का प्रयत्न किया; मुझे यह बिल्कुल ही मुश्किल
नहीं जान पड़ता है--केवल इसके लिए अच्छे अभ्यास की आवश्यकता है। क्या
तुम अपने 'गॉल्फिंग' मित्रों से मिलने के लिए कभी फिलाडेलफिया नहीं गईं ?
तुम्हारी योजनाएँ क्या हैं ? अपने शेष जीवन में क्या करने को सोच रही
हो ? क्या किसी कार्य के लिए तुमने विचार किया है ? मुझे एक लंबा पत्र
लिखना। लिखोगी ? जब मैं नेपुल्स के मार्गों से गुजर रहा था, मैंने एक
महिला को देखा, जो तीन और महिलाओं के साथ जा रही थीं, वे निश्चय ही
अमेरिकी थीं। वह तुमसे इतना मिलती-जुलती थीं कि मैं उनसे कुछ कहने ही जा
रहा था, किंतु जब मैं नजदीक गया मुझे अपनी गलती मालूम हो गई।
संप्रति विदा। शीघ्र लिखना।
सतत तुम्हारा प्यारा भाई,
विवेकानंद
(श्रीमती ओलि बुल को लिखित)
रिजले,
४ सितंबर, १८९९
प्रिय श्रीमती बुल,
...मेरी तो वही एक बात है--माँ ही सब कुछ जानती हैं। ...
आपका,
विवेकानंद
(श्री ई. टी. स्टर्डी को लिखित)
रिजले मॅनर,
१४ सितंबर, १८९९
प्रिय स्टर्डी,
लेगेट के घर में मैं केवल विश्राम ही ले रहा हूँ और कुछ भी नहीं कर रहा
हूँ। अभेदानंद यहीं पर है। वह अत्यंत परिश्रम कर रहा है। दो-एक दिन के
अंदर ही एक माह तक विभिन्न स्थानों में कार्य करने के लिए वह चल देगा।
फिर न्यूयार्क में कार्य करने के लिए आएगा।
तुम्हारे बताये हुए तरीक़े के आधार पर मैं कुछ करने के लिए प्रयत्नशील
हूँ; किंतु हिंदुओं के बारे में हिंदू द्वारा लिखी गई पुस्तक को
पाश्चात्य देश में कितना आदर प्राप्त होगा--मैं नहीं कह सकता।...
श्रीमती जॉनसन के मतानुसार किसी धार्मिक व्यक्ति को रोग होना उचित नहीं
है। उनको अब यह भी मालूम हो रहा है कि मेरा सिगरेट आदि पीना भी पाप है,
आदि आदि। मेरी बीमारी के कारण कुमारी मुलर ने मुझे छोड़ दिया। मुझे एवं
तुम्हें यह सोचना चाहिए कि संभवत: उनकी धारणा पूर्णतया ठीक है। किंतु मैं
जैसा था, ठीक ही हूँ। भारत में अनेक व्यक्तियों ने इस दोष के लिए जिस
प्रकार आपत्ति की है, उसी प्रकार यूरोपीय लोगों के साथ भोजन करना भी उनकी
दृष्टि में दोषयुक्त है। यूरोपियनों के साथ मैं भोजन करता हूँ, इसलिए
मुझे एक पारिवारिक देव-मंदिर से निकाल दिया गया था। मैं चाहता हूँ कि मेरा
गठन इस प्रकार का हो कि प्रत्येक व्यक्ति अपनी इच्छानुसार मुझे मोड़
सके। किंतु यह दुर्भाग्य की बात है कि मुझे ऐसा व्यक्ति देखने को नहीं
मिलता, जिससे कि सब कोई सन्तुष्टि हों। खासकर जिसे अनेक स्थालों में
घूमता पड़ता है, उसके लिए सबको संतुष्ट करना संभव नहीं है।
जब मैं पहले अमेरिका आया था, तब पतलून न रहने से लोग मेरे प्रति
दुर्व्यवहार करते थे; इसके बाद मज़बूत आस्तीन तथा कॉलर पहनने के लिए
मुझे बाध्य किया गया-अन्यथा वे मुझे स्पर्श नहीं कर सकते थे। अगर उनके
द्वारा दी गई खाद्य-सामग्री मैं नही खाता था, तो वे मुझे अत्यंत
व्यंग्यात्मक दृष्टि से देखते थे--इसी प्रकार सारी बातें थीं।
ज्यों ही मैं भारत पहुँचा, वहाँ पर तत्काल ही मेरा मस्तक मुंडन कराकर
उन्होंने मुझे कौपीन धारण कराया; फलत: मुझे 'बहुमूत्र' की बीमारी हो गई।
सारदानंद ने कभी अपने अंत:र्वास को नहीं त्यागा, इसलिए उसके जीवन की
रक्षा हो गई--उसे केवल सामान्यरूप से वातग्रस्त होना पड़ा तथा विपुल
लोकनिंदा सहनी पड़ी।
इसमें संदेह नहीं कि सब कुछ मेरा कर्मफल ही है--और इसलिए इसमें मैं आनंद
ही अनुभव करता हूँ। क्योंकि यद्यपि इससे तात्कालिक कष्ट होता है, फिर
भी इसके द्वारा जीवन में एक विशेष प्रकार का अनुभव प्राप्त होता है; और
यह अनुभव, चाहे इस जीवन में हो अथवा दूसरे जीवन में उपयोगी ही सिद्ध होता
है।...
जहाँ तक मेरा प्रश्न है, मैं स्वयं उतार-चढ़ाव के बीच में होकर अग्रसर
हो रहा हूँ। मैं सदा यह जानता तथा प्रचार करता रहा हूँ कि प्रत्येक आनंद
के बाद दु:ख उपस्थित होता है--अगर चक्रवृद्धि व्याज के साथ नहीं, तो कम
से कम मूलधन के रूप में ही। संसार से मुझे बहुत प्यार मिला है; इसलिए
यथेष्ट घृणा प्राप्त करने के लिए भी मुझे प्रस्तुत रहना होगा। और इससे
मुझे खुशी ही है --क्योंकि इसके द्वारा मेरा यह मतवाद प्रमाणित हो रहा है
कि प्रत्येक उत्थान के साथ ही साथ उसके अनुरूप पतन भी रहता है।
अपनी ओर से मैं अपने स्वभाव तथा नीति पर अवलंबित हूँ-- एक बार जिसको
मैंने अपने मित्र के रूप में माना है, वह सदा के लिए मेरा मित्र है। इसके
अलावा भारतीय रीति के अनुसार बाहरी घटनाओं के कारणों का अनुसंधान करने के
लिए मैं भीतर की ओर ही देखता हूँ।
मैं यह जानता हूँ कि मुझ पर चाहे जितनी भी विद्वेष एवं घृणा की तरगें
उपस्थित क्यों न हों, उनके लिए मैं ज़िम्मेवार हूँ एवं यह जिम्मेवारी
एकमात्र मुझ पर ही है। इसकी अपेक्षा उसका और कोई रूपांतर होना संभव नहीं
है।
श्रीमती जॉनसन ने एवं तुमने एक बार और अंत:र्मुखी होने के लिए मुझे जो
सावधान किया है, तदर्थ तुम दोनों को अनेक धन्यवाद।
सदा ही की तरह स्नेहशील तथा शुभाकांक्षी,
विवेकानंद
(कुमारी मेरी हेल को लिखित)
रिजले मॅनर,
३ अक्तूबर, १८९९
प्रिय मेरी,
तुम्हारे कृपा-पत्र के लिए धन्यवाद। इस समय बहुत ठीक हूँ और प्रतिदिन
स्वस्थ होता जा रहा हूँ। आशा है कि श्रीमती बुल एवं उनकी पुत्री आज या
कल आ जाएंगी। इस प्रकार हमारे लिए आनंदप्रद समय का दूसरा दौर प्रारंभ
होगा--हाँ तुम्हारे लिए तो हर समय आनंद है। मैं खुश हूँ कि तुम
फ़िलाडेलफ़िया जा रही हो, लेकिन इस बार उतना खुश नहीं हूँ जितना तब था--जब
करोड़पति क्षितिज पर दिखलायी पड़ रहा था। बहुत प्यार के साथ-
तुम्हारा प्रिय भाई,
विवेकानंद
(कुमारी मेरी हेल को लिखित)
प्रिय आशावादिनी,
तुम्हारी चिट्ठी मिली और इसके लिए अनुगृहीत हूँ कि किसी बात ने आशावादी
एकांतवाद को सक्रिय होने के लिए विवश किया है। यों तो तुम्हारे प्रश्नों
ने नैराश्य के स्रोत को ही खोल दिया है। आधुनिक भारत में अंग्रेजी शासन
का केवल एक ही सांत्वनादायक पक्ष है कि एक बार फिर उसने अनजाने ही भारत को
विश्व के रंगमंच पर लाकर खड़ा कर दिया है, उसने वाह्य जगत के संपर्क को
इस पर लाद दिया है। अगर जनता के मंगल के लिए यह किया गया होता, तो जिस तरह
परिस्थितियों ने जापान की सहायता की, भारत के लिए इसका परिणाम और भी
आश्चर्यजनक होता। जब मुख्य ध्येय खून चूसना हो, कोई कल्याण नहीं हो
सकता। मोटे रूप से जनता के लिए पुराना शासन अधिक अच्छा था, क्योंकि जनता
से वह सब कुछ नहीं छीनता था और उसमें कुछ न्याय था, कुछ स्वतंत्रता थी।
कुछ सो आधुनीकृत, अर्धशिक्षित एंव राष्ट्रीय चेतनाशून्य पुरुष ही
वर्तमान अंग्रेजीभारत का दिखावा हैं --और कुछ नहीं। मुस्लिम इतिहासकार
फ़रिश्ता के अनुसार १२वीं शताब्दी में ६० करोड़ हिंदू थे--अब २० करोड़
से भी कम।
भारत को जीतने के लिए अंग्रेजों के संघर्ष के मध्य शताब्दियों की
अराजकता, अंग्रेज़ों द्वारा १८५६-५८ में किए गए भयावह जनवधों और इससे भी
अधिक भयावह अकालों, जो अंग्रेजी शासन के अनिवार्य परिणाम बन गए हैं (देशी
राज्यों में कभी अकाल नहीं पड़ता) और उनमें लाखों प्राणियों की मृत्यु
के बावजूद भी जनसंख्या में काफी वृद्धि होती रही है; तब भी जनसंख्या
उतनी नहीं है जब देश पूर्णत: स्वतंत्र था-अर्थात मुस्लिम शासन के पूर्व।
भारतीय श्रम एवं उत्पादन से भारत की वर्तमान आबादी की पाँच गुनी आबादी का
भी आसानी से निर्वाह हो सकता है, यदि भारतीयों की सारी वस्तुएँ उनसे छीन
न ली जाएं।
यह आज की स्थिति है-शिक्षा को भी अब अधिक नहीं फैलने दिया जाएगा; प्रेस की
स्वतंत्रता का गला पहले ही घोंट दिया गया है, (निरस्त्र तो हम पहले से ही
कर दिए गए हैं) और स्व-शासन का जो थोड़ा अवसर पहले दिया गया था, शीघ्रता
से छीना जा रहा है। हम इंतजार कर रहे हैं कि अब आगे क्या होगा ! निर्दोष
आलोचना में लिखे गए कुछ शब्दों के लिए लोगों को कालापानी की सजा दी जा
रही है, अन्य लोग बिना कोई मुकदमा चलाये जेलों में ठूँसे जा रहे हैं; और
किसी को कुछ पता नहीं कि कब उनका सर धड़ से अलग हो जाएगा।
कुछ वर्षों से भारत में आतंकपूर्ण शासन का दौर है। अंग्रेज सिपाही हमारे
देशवासियों का खून कर रहे हैं, हमारी बहनों को अपमानित कर रहे हैं-हमारे
खर्च से ही यात्रा का किराया और पेन्शन देकर स्वदेश भेजे जाने के लिए !
हम लोग घोर अंधकार में हैं -ईश्वर कहाँ हैं? मेरी, तुम आशावादिनी हो सकती
हो, लेकिन क्या मेरे लिए यह संभव है ? मान लो तुम इस पत्र को केवल
प्रकाशित भर कर दो-तो उस कानून सहारा लेकर जो अभी-अभी भारत में पारित हुआ
है, अंग्रेजी सरकार मुझे यहाँ से भारत घसीट ले जाएगी और बिना किसी कानूनी
कार्रवाई के मुझे मार डालेगी। और मुझे यह मालूम है कि तुम्हारी सभी ईसाई
सरकारें इस पर खुशियाँ मनायेंगी, क्योंकि हम गैरईसाई हैं। क्या मैं भी
सोने चला जा सकता हूँ और आशावादी हो सकता हूँ ? नीरो सबसे बड़ा आशावादी
मनुष्य था ! समाचार के रूप में भी वे इन भीषण बातों को प्रकाशित करना
नहीं चाहते, अगर कुछ समाचार देना आवश्यक भी हो तो 'रॉयटर' के संवाददाता
ठीक उलटा झूठा समाचार गढ़ कर देते हैं ! एक ईसाई के लिए गैरईसाई की हत्या
भी वैधानिक मनोरंजन है ! तुम्हारे मिशनरी ईश्वर का उपदेश करने जाते हैं,
लेकिन अंग्रेजों के भय से एक शब्द भी सत्य कह पाने का साहस नहीं कर
पाते, क्योंकि अंग्रेज उन्हें दूसरे दिन ही लात मारकर निकाल बाहर कर
देंगे।
शिक्षा-संचालन के लिए पूर्ववर्ती सरकारी द्वारा अनुदत्त संपत्ति एवं जमीन
को गले के नीचे उतार लिया गया है और वर्तमान सरकार रूस से भी कम शिक्षा पर
व्यय करती है। और शिक्षा भी कैसी ?
मौलिकता की किंचित् अभिव्यक्ति भी दबा दी जाती है। मेरी, अगर कोई वास्तव
में ऐसा ईश्वर नहीं है, जो सबका पिता है, जो निर्बल की रक्षा करने में
सबल से भयभीत नहीं है और जिसे रिश्वत नहीं दिया जा सकता, तो सब कुछ हमारे
लिए निराशा ही है। क्या कोई इसी प्रकार का ईश्वर है ? समय बतायेगा।
हाँ तो, मैं ऐसा सोच रहा हूँ कि कुछ सप्ताह में शिकागो आ रहा हूँ और इन
विषयों पर पूर्ण रूप से बात करूँगा। इस समाचार के सूत्र को प्रकट न करना।
प्यार के साथ सतत तुमहारा भाई,
विवेकानंद
पुनश्च--जहाँ तक धार्मिक संप्रदायों का प्रश्न है ब्राह्मसमाज, आर्यसमाज
तथा अन्य व्यर्थ की खिचड़ी पकाते हैं। वे मात्र अंग्रेज मालिकों के
प्रति कृतज्ञता की ध्वनियाँ हैं, जिससे कि वे हमें साँस लेने की आज्ञा दे
सकें। हम लोगों ने एक नए भारत का श्री गणेश किया है- एक विकास- इस बात की
प्रतीक्षा में कि आगे क्या घटित होता है। हम तभी नए विचारों में आस्था
रखते हैं, जब राष्ट्र उनकी माँग करता है और जो हमारे लिए सत्य हैं।
ब्राह्मसमाजी के लिए सत्य की यह कसौटी है,'जिसका हमारे लिए सत्य है।
ब्राह्मसमाजों के लिए सत्य की यह कसौटी है,'जिसका हमारे मालिक अनुमोदन
करें'; किंतु हमारे लिए वह सत्य है, जो भारतीय बुद्धि एवं अनुभूति द्वारा
मंडित है। संघर्ष आरंभ हो गया है-हमारे एवं ब्रह्मसमाज के बीच नहीं,
क्योंकि वे पहले से ही निष्प्राण हो गए हैं, बल्कि इससे भी अधिक एक
कठिन, गंभीर एवं भीषण संघर्ष।
वि.
(श्री ई. टी. स्टर्डी को लिखित)
द्वारा श्री एफ. लेगेट,
रिजले मॅनर,
अल्सटर काउंटी,
न्यूयार्क
प्रिय स्टर्डी,
अधूरे पते के कारण तुम्हारा पिछला पत्र इधर-उधर चक्कर लगाकर मेरे पास
पहुँचा।
संभवत: तुम्हारी आलोचना का अधिकांश न्यायसंगत एवं सही है। और यह भी संभव
है कि एक दिन तुम्हें यह पता चले कि इन सबका उदय मनुष्यों के प्रति
तुम्हारी कुछ घृणा से होता है और मैं केवल बलि का बकरा था।
फिर भी इस बात के लिए कटुता नहीं आनी चाहिए, क्योंकि अपनी समझ में मैंने
किसी ऐसी चीज़ का दंभ नहीं किया, जो मुझमें नहीं है। न ऐसा करना मेरे लिए
संभव है, क्योंकि मेरा एक घंटे का सहवास भी किसी को मेरे धूम्रपान एवं
चिड़चिड़े स्वभाव आदि से परिचित करा देगा। 'प्रत्येक मिलन वियोग से
संबद्ध है'-यही वस्तुओं की प्रकृति है। निराशा भी मैं नहीं महसूस करता
हूँ। आशा है कि अब आप में कोई कटुता नहीं रहेगी। कर्म ही हमको मिलाता है
और कर्म ही जुदा भी कराता है।
मुझे पता है कि तुम कितने संकोची हो और दूसरों की भावना को ठेस पहुँचाने
से कितना घृणा करते हो। महीनों तक चलनेवाली तुम्हरी मानसिक यातना का भी
मुझे पूरा एहसास है, जब तुम ऐसे लोगों के साथ कार्य करने के लिए संघर्ष-रत
रहे, जो तुम्हारे आदर्श से इतने भिन्न थे। पहले मैं इसका बिल्कुल ही
अनुमान नहीं कर पाया, अन्यथा मैं तुमको बहुत कुछ अनावश्यक मानसिक
परेशानी से बचा सकता था। यह फिर कर्म का फल है।
हिसाब पहले नहीं पेश किया गया, क्योंकि काम अभी भी खत्म नहीं हुआ है; और
मैं अपने दाता को पूरे कार्य की समाप्ति पर ही एक सर्वांगपूर्ण हिसाब देना
चाहता था। अभी केवल पिछले साल ही कार्य प्रारंभ हुआ है, क्योंकि बहुत काल
तक कोष के लिए हमें प्रतीक्षा करनी पड़ी और मेरा तरीका यह है कि हम
स्व-प्रेरित सहायक की प्रतीक्षा करते हैं, कभी माँगते नहीं।
मैं अपने समस्त कार्य में इसी विचार का अनुगमन करता हूँ, क्योंकि मैं
खूब अच्छी तरह जानता हूँ कि मेरा स्वभाव बहुत से लोगों को अप्रसन्न
करनेवाला है। अत: तब तक इंतजार करता हूँ, जब कोई स्वयं मुझे चाहता है। एक
क्षण की सूचना पर विदा हो जाने के लिए मैं अपने को हमेशा तैयार रखता हूँ।
और विदाई के मामले में न तो मैं कोई बुरा मानता हूँ और न इसके विषय में
अधिक सोचता ही हूँ। केवल इसीलिए दु:खी हूँ कि न चाहते हुए भी मैं दूसरों
को कष्ट देता हूँ। मेरी कोई डाक अगर आपके पास आए, तो कृपया भेज दीजियेगा।
सदा आप सुखी-समृद्ध रहें, ऐसी मेरी सदा प्रार्थना है।
विवेकानंद
(भगिनी निवेदिता को लिखित)
रिजली,
१ नवंबर, १८९९
प्रिय मार्गट,
मुझे ऐसा मालूम हो रहा है कि मानो तुम्हारे हृदय में किसी प्रकार का
विषाद है। घबड़ाओ मत, कोई भी चीज़ चिरस्थायी नहीं हैं। जो भी हो जीवन तो
अनंत नहीं है। मैं उसके लिए अत्यंत कृतज्ञ हूँ। जगत में जो लोग
सर्वश्रेष्ठ एवं परम साहसी होते हैं, उनके भाग्य में कष्ट ही लिखा होता
है; किंतु यद्यपि उसका प्रतिकार संभव है, फिर भी जब तक ऐसा न हो, तब तक के
लिए इस प्रकार की घटना भावी अनेक युगों तक कम से कम स्वप्न दूर करने की
शिक्षा के रूप में भी ग्रहण करने योग्य है। मैं तो स्वाभाविक दशा में
अपनी वेदना-यातनाओं को आनंद के साथ ग्रहण करता हूँ। इस जगत में किसी न
किसी को दु:ख उठाना ही पड़ेगा, मुझे खुशी है कि प्रकृति के सम्मुख बलि के
रूप में जिनको उपस्थित किया गया है, मैं भी उनमें से एक हूँ।
तुम्हारा,
विवेकानंद
(श्रीमती ओलि बुल को लिखित)
द्वारा ई. गर्नसी, एम. डी.,
१८०, डब्ल्यू. ५९, मैड्रिड,
१५ नवंबर, १८९९
प्रिय श्रीमती बुल,
आखिरकार अभी केंब्रिज आने का इरादा मैंने कर ही लिया है। जो कहानियाँ मैं
शुरू कर चुका हूँ, उन्हें मुझे पूरा करना होगा। मैं नहीं समझता कि इनमें
से पहली मार्गो ने मुझे वापस की थी।
मेरे कपड़े परसों तैयार हो जाएंगे, और तब मैं चल पड़ने के लिए तैयार हो
जाऊँगा। बस, भय मुझे सिर्फ़ इस बात का है कि वहाँ तमाम जाड़े मुझे लगातार
जलसों और व्याख्यानों के कारण मानसिक शांति के बजाए अशांति ही झेलती
पड़ेगी। खैर, शायद आप वहाँ मेरे लिए कहीं किसी कमरे का प्रबंध कर सकें,
जहाँ इन सब झंझटों से मैं अपने को बचाये रख सकूँ। और फिर मैं एक ऐसे
स्थान पर जाने में घबड़ा रहा हूँ, जहाँ कि परोक्ष रूप से एक भारतीय मठ
होगा। इन मठवालों का नाम मात्र ही मुझे घबड़ा देने के लिए पर्याप्त है।
और वे इन पत्रों आदि से मार डालने को कृतसंकल्प हैं।
फिर भी जैसे ही मुझे कपड़े मिल जाएंगे, वैसे ही मैं आ जाऊँगा--इसी हफ्ते
में। आपको मेरे खातिर न्यूयार्क आने की आवश्यकता नहीं। यदि आपको निजी
काम हो तो और बात है। मॉण्टक्लेयर की श्रीमती ह्वीलर का एक अत्यंत
कृपापूर्ण निमन्त्रण मुझे मिला था। बोस्टन को रवाना होने के पूर्व कम से
कम कुछ घंटों के लिए मैं मॉण्टक्लेयर घूम पड़ूँगा।
मैं काफी अच्छा हूँ और ठीक ठाक हूँ; मेरी चिंता को छोड़कर मेरे साथ और
कोई गड़बड़ी नहीं है, अब मुझे विश्वास हो गया है कि इसे भी मैं उखाड़
फेंकूँगा।
मुझे आपसे केवल एक चीज-ओर मुझे भय है कि वह मुझे आपसे नहीं मिल सकेगी -वह
यह कि आप भारत पत्र आदि लिखते समय उसमें अप्रत्यक्ष रूप से भी कहीं कोई
मेरा उल्लेख न करें। मैं कुछ समय के लिए या शायद हमेशा के लिए छिपा रहना
चाहता हूँ। मैं उस दिन को कितना कितना कोसता हूँ, जब मुझे पहले-पहल
प्रसिद्धि मिली !
सस्नेह,
विवेकानंद
(भगिनी निवेदिता को लिखित)
न्यूयार्क,
१५ नवंबर, १८९९
प्रिय मार्गट,
...सभी बातों को ध्यान में रखते हुए मैं नहीं समझता कि मेरे शरीर के लिए
किसी प्रकार की चिंता का कारण है। इस प्रकार का उत्तेजनशील शरीर समय समय
पर महान संगीत ध्वनित करने तथा अंधकार में विलाप करने का उपयुक्त उपकरण
होता है।
तुम्हारा
विवेकानंद
(श्री ई. टी. स्टर्डी को लिखित)
द्वारा एफ. एच. लेगेट,
२१, पश्चिम, ३४वीं स्ट्रीट,
न्यूयार्क,
नवंबर, १८९९
प्रिय स्टर्डी,
यह पत्र अपने आचरण के समर्थन में नहीं लिख रहा हूँ ! यदि मैंने कोई पाप
किया है तो शब्दों से उसका मोचन नहीं हो सकता, न ही किसी प्रकार का
प्रतिबंध सत्कार्य को अग्रसर होने से रोक सकता है।
पिछले कुछ महीनोंसे बराबर मैं इस विषय में सुनता आ रहा हूँ कि पश्चिमवालों
ने मेरे भोग के लिए कितने कितने ऐशो-आराम के साधन जुटाये हैं, और यह कि
ऐशो-आराम के इन साधनों को मुझ जैसा पाखंडी उपभोग भी करता रहा है, जब कि इस
बीच बराबर मैं दूसरों को त्याग की शिक्षा देता रहा हूँ। और ये ऐशो-आराम
के साधन और इनका उपभोग ही कम से कम इंग्लैंड में मेरे काम में सबसे बड़ा
रोड़ा रहा है। मैंने करीब-करीब अपने मन को यह विश्वास कर लेने के लिए
सम्मोहित कर दिया है कि मेरे जीवन के नीरस मरु-प्रदेश में यह एक
नख़लिस्तान जैसी चीज़ रही है-जीवन-पर्यंत के दु:खों-कष्टों तथा निराशाओं
के बीच प्रकाश का एक लघु केंद्र ! --कठिन परिश्रम और कठिनतर अभिशापों से
भरे जीवन में एक क्षण का विश्राम !--और यह नखलिस्तान, यह लघु केंद्र, यह
क्षण भी केवल इंद्रियभोग के लिए !!
मैं बहुत खुश था, मैं दिन में सैकड़ों बार उनकी कल्याण-कामना करता था,
जिन्होंने यह सब प्राप्त कराने में मेरी सहायता की परंतु देखिए न, तभी
आपका पिछला पत्र आता है, बिजली की कड़क की तरह, और सारा स्वप्न उड़ जाता
है। मैं आपकी आलोचना के प्रति अविश्वास करने लगता हूँ, बल्कि मुझमें
ऐशो-आराम के साधन और उनके भोग आदि की सारी बातों और इसके अतिरिक्त दूसरी
चीजों की स्मृतियों पर बहुत थोड़ी आस्था शेष रह जाती है। यह सब कुछ मैं
आपको लिख रहा हूँ, यदि आप उचित समझें, तो आशा है आप इसे मित्रों को दिखा
देगे ओर बतायेंगे कि मैं कहाँ गलती पर हूँ।
मुझे 'रीडिंग' में आपका आवास याद है, जहाँ मुझे दिन में तीन बार उबली हुई
पातगोभी और आलू, भात तथा उबली हुई दाल खाने को दी जाती थी और साथ ही वह
चटनी भी, जो आपकी पत्नी मुझे सारे समय कोस कोस कर देती थीं। मुझे याद
नहीं कि कभी आपने मुझे सिगार पीने को दिया हो-शिलिंगवाली या पेंसवाली। न
ही मुझे याद है कि मैंने आपसे भोजन या आपकी पत्नी के सदा कोसते रहने के
विषय में कोई शिकायत की हो, हालँकि घर में मैं हमेशा एक चोर की तरह भय से
सदा काँपता और प्रतिदिन आपके लिए काम करता रहता था।
अगली स्मृति मुझे सेंट जॉर्ज रोड स्थित उस मकान की है, जहाँ आप और कुमारी
मूलर उस घर के मालिक थे। मेरा भाई बेचारा वहाँ बीमार था और--ने उसे खदेड़
दिया। वहाँ भी मुझे याद नहीं आता कि मुझे कोई ऐशो-आराम मिला-न खान-पान के
विषय में और न शय्या-बिस्तर के विषय में। यहाँ तक कि कमरे के विषय में भी
नहीं।
दूसरा स्थान जहाँ मैं ठहरा, वह कुमारी मूलर का घर था। यद्यपि वह मेरे
प्रति बहुत मेहरबान रहीं, पर मैं सूखे मेवे और फल खाकर गुज़ारा करता था।
फिर अगली स्मृति लंदन के उस 'अंध-कूमप' की है, जहाँ मुझे दिन-रात कार्य
करना पड़ता था। और अक्सर पाँच-छ: जनों के लिए भोजन भी पकाना पड़ता था; और
जहाँ अधिकांश रात्रियाँ मुझे रोटी के टुकड़े और मक्खन के सहारे गुजार
देनी पड़ती थीं।
मुझें याद है एक बार श्रीमती-ने मुझे भोजन पर बुलाया, रात को ठहरने की जगह
भी दी, पर अगले ही दिन घर भर में धू्म्रपान करनेवाले काले जंगली की निंदा
करती रहीं।
कैप्टन सेवियर तथा श्रीमती सेवियर को छोड़कर मुझे याद नहीं कि इंग्लैंड
में किसी ने एक रूमाल जितना टाट का टुकड़ा भी कभी मुझे दिया हो। बल्कि
इंग्लैंड में शरीर और मस्तिष्क से रात-दिन काम करने के कारण ही मेरी
तंदरुस्ती गिर गई। यही सब कुछ आप इंग्लैंड-वासियों ने मुझे दिया, जब कि
बराबर मुझसे जी-तोड़ काम लेते रहे। और अब मुझे इस 'ऐशो-आराम' के लिए कोसा
जा रहा है। आपमें से किन लोगों ने मुझे कोट पहनाया है ? किसने सिगार दिया
है ? किसने मछली या गोश्त का टुकड़ा? आपमें से किसे ऐसा कहने की हिम्मत
है कि मैंने उससे खाने-पीने की, या धूम्रपान या कपड़े-लत्ते या रुपये-पैसे
की याचना की ?--से पूछिए, भगवान के लिए पूछिए, अपने मित्रों से पूछिए, और
सबसे पहले खुद अपने से पूछिए, 'अपने अंदर स्थित उन परमेश्वर से जो कभी
सोता नहीं।'
आपने मेरे काम के लिए रुपया दिया है। उसकी एक एक पाई यहाँ है। आपकी आँखों
के सामने मैंने अपने भाई को दूर भेज दिया, शायद मरने के लिए, पर मुझे यह
गवारा नहीं हुआ कि उस अमानत के धन में से उसे एक कौड़ी भी दे दूँ।
दूसरी ओर मुझे इंग्लैंड के सेवियर-दम्पति की याद आती है, जिन्होंने ठंड
में मेरी कपड़ों से रक्षा की, मेरी अपनी माँ से बढ़कर मेरी सेवा की और
मेरी परेशानियों तथा मेरी दुर्बलताओं को साथ साथ झेला। और उनके हृदय में
मेरे प्रति आशीर्वाद भाव के अतिरिक्त और कुछ नहीं है। और चूँकि श्रीमती
सेवियर को किसी गौरव की परवाह नहीं थी, इसलिए वे आज हज़ारों लोगों की
दृष्टि में पूज्य हैं, और मरने के वाद ये हम गरीब भारतवासियों की एक महान
उपकारकर्त्री के रूप में लाखों लोगों द्वारा स्मरण की जाएंगी। और इन
लोगों ने मेरे ऐशो-आराम के लिए मुझे कभी नहीं कोसा, हालाँकि मुझे उसकी यदि
आवश्यकता हो या मैं उसे चाहूँ तो वे उसे देने के लिए तत्पर हैं।
श्रीमती बुल, कुमारी मैक्लिऑड, और श्री तथा श्रीमती लेगेट के विषय में
आपसे कुछ कहने की आवश्यकता नहीं। मेरे प्रति उनका कितना स्नेह और
कृपाभाव है, यह आप जानते हैं। श्रीमती बुल और कुमारी मैक्लिऑड तो हमारे
देश भी जा चुकी हैं, वहाँ घूमी-फिरी और रही हैं, जैसा कि अभी तक किसी
विदेशी ने नहीं किया, और वहाँ का सब कुछ झेला है, पर ये न मुझे कोसती हैं
न मेरे ऐशो-आराम को। बल्कि यदि मैं अच्छा खाना चाहूँ या एक डॉलरवाला
सिगार पीना चाहूँ, तो इससे वे खुश ही होंगी। और इन्हीं लेगेट और बुल
परिवारों ने मुझे खाने को भोजन और तन ढकने को वस्त्र दिया, जिनके पैसों
से मैं धूम्रपान करता रहा और कई बार तो अपने मकान का मैंने किराया चुकता
किया; जब कि मैं आपके देशवासियों के लिए मरता-ख़पता रहा और मेरे शरीर की
बोटियों के बदले आप लोग मुझे गंदे दरबे तथा भुखमरी प्रदान करते रहे, और
साथ ही मन में यह आरोप भी पालते रहे कि मैं वहाँ 'ऐश' कर रहा हूँ।
'गरजनेवाले मेघ बरसते नहीं;
वर्षा के मेघ बिना गरजे धरती को आप्लावित कर देते हैं।'
देखिए..., जिन्होंने सहायता दी है या अभी भी कर रहे हैं, वे कोई आलोचना
नहीं करते, न कोसते हैं; यह तो केवल उनका काम है, जो कुछ नहीं करते, जो
सिर्फ अपने स्वार्थ-साधन में मस्त रहते हैं। इन निकम्मे, हृदयहीन,
स्वार्थी, निकृष्ट लोगों का आलोचना करना मेरे लिए सबसे बड़ा वरदान हो
सकता है। मैं अपने जीवन में इसके सिवा और कुछ नहीं चाहता कि इन बेहद मतलबी
लोगों से कोसों दूर रहूँ।
ऐशो-आराम की बातें ! इन आलोचकों को एक के बाद एक परखिए तो सबके सब मिट्टी
के लोंदे निकलेंगे, किसी में भी जीवन-चेतना का कहीं लेश नहीं। ईश्वर को
धन्यवाद है कि ऐसे लोग देर-सबेर अपने रंग में उतर आते हैं। और आप मुझे इन
हृदयहीन स्वार्थी लोगों के कहने पर अपना आचरण और कार्य नियमित करने की
सलाह देते हैं, और हतबुद्धि होते हैं, क्योंकि मैं ऐसा नहीं करता !
जहाँ तक मेरे गुरुभाइयों की बात है, वे जो मैं कहता हँ, वही करते हैं। यदि
उन्होंने कहीं कोई स्वार्थ दिखाया है, तो वह मेरे आदेश पर ही, अपनी
इच्छा से नहीं।
जिस 'अंध-कूप' में आपने मुझे लंदन में रखा, जहाँ मुझे काम करते करते मुझे
जाने दिया और सारे समय प्राय: भूखा रखा, क्या वहाँ आप अपने बच्चों को
रखना चाहेंगे ? क्या श्रीमती-ऐसी चाहेंगी ? वे 'संन्यासी' हैं, और इसका
अर्थ है कि कोई संन्यासी अपना जीवन अनावश्यक रूप से बरबाद न करे, न ही
'अनावश्यक कष्ट-सहन करे।'
पश्चिम में यह सब कष्ट सहन करते समय हम केवल संन्यासी-धर्म का उल्लंघन
ही करते रहे हैं। वे मेरे भाई हैं, मेरे बच्चे हैं। मैं अपनी खातिर
उन्हें कुँए में मरने देना नहीं चाहता। जितना जो कुछ भी शुभ है, सत्य
है, उसकी सौगंध खाकर कहता हूँ कि मैं उन्हें उनकी कष्ट-साधनाओं के बदले
इस तरह भूखों मरते, खपते और कोसे जाते नहीं देखना चाहता।
एक बात और। मुझे बड़ी खुशी होगी, यदि आप मुझे दिखा सकें कि कहाँ मैंने देह
को यातना देने का प्रवचन किया है। जहाँ तक शास्त्रों की बात है, यदि कोई
पंडित-शास्त्री संन्यासियों तथा परमहंसों के लिए जीवन-व्यवस्था के
नियमों के अधार पर हमारे विरुद्ध कुछ कह सकने का साहस करे, तो मुझे
प्रसन्नता ही होगी।
हाँ... मेरा हृदय दुखता है। मैं सब समझता हूँ। मुझे पता है कि आप कहाँ
हैं-आप उन लोगों के चंगुल में फँसे हुए हैं, जो आपको मेरे विरुद्ध
इस्तेमाल करना चाहते हैं। मेरा मतलब आपकी पत्नी से नहीं। वह तो इतनी
सीधी है कि कभी खतरनाक हो ही नहीं सकती। लेकिन मेरे बेचारे भाई, आपके पास
माँस की गंध है-थोड़ा सा धन है। --और गिद्ध चारों ओर मँडरा रहे हैं। यही
जीवन है।
आपने प्राचीन भारत के विषय में ढेरों बातें कही थीं। वह भारत अब भी जीवित
है,… वह मरा नहीं है, और वह जीवित भारत आज भी बिना किसी भय या अमीर की
कृपा के, बिना किसी के मत की परवाह किए-चाहे वह अपने देश में हो, जहाँ
उसके पैरों में जंजीर पड़ी है या जहाँ उस जंजीर का सिरा हाथ में पकड़े
उसका शासक है --अपना संदेश देने का साहस रखता है। वह भारत अब भी जीवित
है…--अमर प्रेम और शाश्वत निष्ठा का वह अपरिवर्तनीय भारत, अपने
रीति-रिवाजों में ही नहीं, वरन् उस प्रेम, निष्ठा और मैत्री भाव में भी !
और उसी भारत की संतानों में से एक नगण्य मैं आपको प्यार करता हूँ,…
'भारतीय प्रेम' की भावना से प्यार करता हूँ, और आपको इस भ्रमजाल से
मुक्त करने के लिए हजारों तन न्यौछावर कर सकता हूँ।
सदैव आपका,
विवेकाननद
(स्वामी ब्रह्मानंद को लिखित)
अमेरिका,
२० नवंबर, १८९९
अभिन्नहृदय,
शरत् के पत्र से समाचार विदित हुए।... तुम्हारी हार-जीत के साथ मेरा कोई
संबंध नहीं है, तुम लोग समय रहते अनुभव प्राप्त कर लो।... मुझे अब कोई
बीमारी नहीं है। मैं पुन... विभिन्न स्थलों में घूमने के लिए रवाना हो
रहा हूँ। चिंता का कोई स्थान नहीं है, माभै:। तुम्हारे देखते देखते सब
कुछ दूर हो जाएगा, केवल आज्ञा पालन करते जाना, सारी सिद्धि प्राप्त हो
जाएगी।- जय माँ रणरंगिणी ! जय माँ, जय माँ रणरंगिणी ! वाह गुरु, वाह गुरु
की फतह !
...सच तो यह है कि कायरता से बढ़कर दूसर कोई पाप नहीं है; कायरों का कभी
उद्धार नहीं होता है--यह निश्चित है। और सारी बातें मुझसे सह ली जाती हैं,
कायरता सहन नहीं होती। जो उसे नहीं छोड़ सकता, उसके साथ संबंध रखना क्या
मेरे लिए संभव हो सकता है ? ... एक चोट सहकर वेग से दस चोटें जमानी
होंगी... तभी तो मनुष्यता है। कायर लोग तो केवल दया के पात्र हैं !
आज महामाँ का दिवस है, मैं आशीर्वाद दे रहा हूँ कि आज की रात्रि में ही
माँ तुम लोगों के हृदयों में नृत्य करे एवं तुम लोगों की भुजाओं में अनंत
शक्ति प्रदान करे ! जय काली, जय काली, जय काली ! माँ अवश्य ही अवतरित
होगी--महाबल से सर्वजय--विश्वविजय होगी; माँ अवतरित हो रही है, डरने की
क्या बात है ? किससे डरना है ? जय काली, जय काली ! तुम्हारे एक एक
व्यक्ति की पद-चाप से धरातल कम्पित हो उठेगा।...जय काली! पुन: आगे बढ़ो,
आगे बढ़ो ! वाह गुरु, जय माँ, जय माँ; काली, काली, काली ! तुम लोगों के
लिए रोग, शोक, आपत्ति दुर्बलता कुछ भी नहीं हैं ! तुम्हारे लिए महाविजय,
महालक्ष्मी, महाश्री विद्यमान हैं। माभै: माभै:। विपत्ति की संभावना दूर
हो चुकी है, माभै: ! जय काली, जय काली !
विवेकानंद
पुनश्च--मैं माँ का दास हूँ, तुम लोग भी माँ के दास हो- क्या हम नष्ट
हो सकते हैं, भयभीत हो सकते हैं ? चित्त में अहंकार न आने पावे, एवं हृदय
से प्रेम दूर न होने पावे। तुम्हारा नाश होना क्या संभव है ? माभै: ! जय
काली, जय काली !
(स्वामी ब्रह्मानंद को लिखित)
२१ पश्चिम, ३४नं. रास्ता, न्यूयार्क,
२१, नवंबर, १८९९
प्रिय ब्रह्मानंद,
हिसाब ठीक है। मैंने उन कागजों को श्रीमती बुल को सौंप दिया है तथा
उन्होंने विभिन्न दाताओं को उक्त हिसाब के विभिन्न अंश सूचित करने की
जिम्मेवारी अपने ऊपर ली है। पहले की कठोर चिट्ठियों में मैंने जो कुछ
लिखा है, उसका कुछ ख्याल न करना। उससे तुम्हारा भला ही होगा। प्रथम,
उसके फलस्वरूप भविष्य में तुम व्यवहार-कुशल होकर नियमित रूप से ठीक-ठीक
हिसाब रखना सीखोगे एवं अन्य गुरुभाइयों को भी सिखा सकोगे। द्वितीय, इन
भर्त्सनाओं के बाद भी यदि तुम लोग साहसी न बन सको, तो मैं तुमसे और कुछ
भी आशा भविष्य में नहीं करूँगा। तुम लोगों को मरते हुए भी देखना चाहता
हूँ, फिर भी तुम्हें संग्राम करना होगा ! सिपाही की तरह आज्ञा-पालनार्थ
अपनी जान तक दे दो एवं निर्वाण-लाभ करो, किंतु कायरपन को कभी प्रोत्साहन
नहीं दिया जा सकता।
कुछ दिन तक के लिए लोप हो जाना मेरे लिए आवश्यक हो गया है। उस समय न तो
कोई मुझे पत्र दे और न मुझे ढूँढ़े। मेरे स्वास्थ्य के लिए ऐसा करना
नितांत आवश्यक है। मेरे स्नायु दुर्बल हो गए हैं-- बस इतना ही, और कोई
विशेष बात नहीं है।
तुम्हारा सर्वांगीण क्ल्याण हो। मेरी कठोरता के लिए नाराज न होना। चाहे
मैं कुछ भी क्यों न कहूँ--मेरा हृदय तुमसे छिपा नहीं है। तुम लोगों का
सर्वविध मंगल हो। विगत प्राय: एक वर्ष से मैं मानो एक प्रकार के आवेश के
साथ बढ़ रहा हूँ। मैं इसका कारण नहीं जानता हूँ। भाग्य में इस प्रकार की
नरक-यातना को भोगना लिखा हुआ था- और मैं उसे भोग चुका हूँ। वास्तव में
मैं पहले की अपेक्षा बहुत कुछ अच्छा हूँ। प्रभु तुम लोगों के सहायक बनें
! चिर विश्राम के लिए शीघ्र ही मैं हिमालय जा रहा हूँ। मेरा कार्य समाप्त
हो चुका है।
सदा प्रभुपदाश्रित
तुम्हारा,
विवेकानंद
पुनश्च-श्रीमती बुल अपना प्यार प्रेषित कर रही हैं।
(श्रीमती एफ़. एच. लेगेट को लिखित)
शिकागो,
२६ नवंबर, १८९९
प्रिय श्रीमती लेगेट,
आपकी कृपा, विशेषत: आपके कृपापूर्ण पत्र के लिए आपको बहुत बहुत धन्यवाद।
मैं अगले वृहस्पतिवार को शिकागो से रवाना हो रहा हूँ और इसके लिए टिकट
तथा बर्थ का इंतजाम कर लिया है।
कुमारी नोबल यहाँ बहुत अच्छी तरह से है और अपना रास्ता बना रही हैं। अभी
उस दिन मैंने अल्बर्टा को देखा-वह अपने यहाँ के आवास का एक एक क्षण आनंद
से गुजार रही है और बहुत खुश है। कुमारी एडम्स (जेन एडम्स) तो सदा की
भाँति मेरे लिए देवदूत ही हैं।
चलने के पहले मैं 'जो जो' को तार भेजूँगा और रात भर पढ़ूँगा।
आपको तथा श्री लेगेट को प्यार।
आपका चिर स्नेहाबद्ध,
विवेकानंद
(श्रीमती एफ़. एच. लेगेट को लिखित)
शिकागो,
३० नवंबर, १८९९
माँ,
मादाम काल्वे के आगमन के अतिरिक्त और कोई नया समाचार नहीं है। काश कि
मैं उनसे कई बार मिला होता ! एक विशाल चीड़-तरु को भीषण झंझा के विरुद्ध
लड़ते हुए देखना एक भव्य दृश्य है--है न ?
आज रात मैं यहाँ से चल दूँगा। ये पंक्तियाँ शीघ्रता में लिख रहा हूँ
क्योंकि ए-मेरा इंतजार कर रहे हैं। श्रीमती एडम्स सदा की तरह कृपालु
हैं। मार्गट आनंदपूर्वक है। कैलिफ़ोर्निया पहुँचकर और समाचार दूँगा।
फ्रै़न्किनसेन्स को प्यार।
आपका पुत्र,
विवेकानंद
(भगिनी निवेदिता को लिखित)
लॉस एंजिलिस,
६ दिसंबर, १८९९
प्रिय मार्गट,
तुम्हारी छठी तारीख आ पहुँची है, किंतु उससे भी मेरे भाग्य में कोई खास
अंत:र नहीं हुआ है। क्या तुम यह समझती हो कि स्थान-परिवर्तन से कोई
विशेष उपकार होगा ? किसी किसीका स्वभाव ही ऐसा है कि दु:ख-कष्ट भोगना ही
वे पसन्द करते हैं। वस्तुत: जिन लोगों के बीच मैंने जन्म लिया है, यदि
उनके लिए मैं अपना हृदय न्योछावर नहीं कर देता, तो दूसरे के लिए मुझे
वैसा करना ही पड़ता-इसमें कोई संदेह नहीं है। किसी किसीका स्वभाव ही ऐसा
होता है--क्रमश: यह मैं समझ रहा हूँ। हम सभी सुख के पीछे दौड़ रहे हैं-यह
सत्य है; किंतु कोई कोई व्यक्ति दु:ख के अंदर ही आनंदानुभव करते
हैं--क्या यह नितांत अद्भुत नहीं है? इसमें हानि कुछ भी नहीं है; केवल
विचार करने का विषय इतना ही है कि सुख-दु:ख दोनों ही संक्रामक हैं।
इंगरसोल ने एक बार कहा था कि यदि वे भगवान होते, तो रोगों को संक्रामक न
बना कर स्वास्थ्य को ही वे संक्रामक बनाते। किंतु स्वास्थ्य भी
रोगों की तुलना में समान भाव से संक्रामक हैं--यह महत्त्वपूर्ण बात एक बार
भी उनके ध्यान में नहीं आयी। विपत्ति तो यही है ! मेरे व्यक्तिगत
सुख-दु:ख से जगत का कुछ बनता-बिगड़ता नहीं है-केवल मुझे इतना ही देखना है
कि वे दूसरों में संक्रमित न हों। यही एक महान तथ्य है। ज्यों ही कोई
महापुरुष दूसरे मनुष्य की अवस्था से दु:खित होते हैं, वे गंभीर बन जाते
हैं, अपनी छाती पीटने लगते हैं और सबको बुलाकर कहते हैं, 'तुम लोग इमली का
पना पिओ, अंगार फाँको, शरीर पर राख मलकर गोबर के ढेर पर बैठे रहो और आँखों
में आँसू भरकर करुण स्वर से विलाप करते रहो। 'मुझे ऐसा दिखायी दे रहा है
कि उन सभी में त्रुटियाँ थीं- वास्तव में थीं। यदि जगत के बोझ को अपने
कंधों पर लेने के लिए तुम यथार्थत: प्रस्तुत हो, तो पूर्ण रूप से उसे
ग्रहण करो; किंतु यह ख्याल रखो कि तुम्हारा विलाप एवं अभिशाप हमें सुनाई
न दे। तुम अपनी यातनाओं के द्वारा हमें इस प्रकार भयभीत न करो कि अंत: में
हमें यह सोचना पड़े कि तुम्हारे निकट न जाकर अपने दु:ख के बोझ को लेकर
स्वयं बैठे रहना ही हमारे लिए कहीं उचित था। जो व्यक्ति यथार्थ में जगत
का बोझ अपने ऊपर लेता है, वह तो जगत को आशीर्वाद देता हुआ अपने मार्ग में
अग्रसर होता रहता है। वह न तो किसी की निंदा करता है और न समालोचना ही;
इसका तात्पर्य यह नहीं है कि जगत में पाप का कोई अस्तित्व न हो;
प्रत्युत उसका कारण यह है कि उसने स्वेच्छापूर्वक स्वत: प्रवृत्त होकर
उसे अपने ऊपर लिया है। यह मुक्तिदाता ही है, जिसे 'अपने मार्ग पर
आनंदपूर्वक चलना चाहिए, मुक्तिकामी के लिए यह आवश्यक नहीं है।'
आज प्रात:काल केवल यही सत्य मेरे सम्मुख प्रकाशित हुआ है। यदि यह भाव
स्थायी रूप से मेरे अंदर आकर मेरे समग्र जीवन में छा जाए तब कहीं ठीक
होगा।
दु:ख के बोझ से जर्जरित जो जहाँ कहीं भी हो, चले आओ, अपना सारा बोझ मुझे
देकर तुम अपनी इच्छानुसार चलते रहो तथा सुखी बनो और यह भूल जाओ कि मेरा
अस्तित्व किसी समय था।
सदा प्यार के साथ,
तुम्हारा पिता,
विवेकानंद
(श्रीमती ओलि बुल को लिखित)
१२ दिसंबर, १८९९
प्रिय श्रीमती बुल,
आपने ठीक ही समझा है-मैं निष्ठुर हूँ, वास्तव में बहुत ही निष्ठुर हूँ।
किंतु मुझमें जो कोमलता आदि है, वह मेरी दुर्बलता है। काश! यह दुर्बलता
यदि मुझमें कम होती, बहुत कम होती ! हाय ! यही है मेरी दुर्बलता तथा यही
है मेरे सभी दु:खों का कारण। अच्छा, नगरपालिका हम लोगों से कर वसूल करना
चाहती है --ठीक है; वह मेरी ग़लती है कि मैंने 'मठ' को एक न्यास-प्रलेख
(deed of trust) द्वारा जनता की संपत्ति नहीं बनाया। अपने वत्सों के
प्रति मैं कटु भाषा का प्रयोग करता हूँ, इसके लिए मैं दु:खित हूँ; किंतु
वे लोग भी यह अच्छी तरह जानते हैं कि संसार में और किसी की अपेक्षा मैं
ही उन्हें अधिक प्यार करता हूँ।
यह सच है कि मुझे दैवी सहायता मिली है ! किंतु ओह ! उस दैवी सहायता के एक
एक कण के लिए मुझे अपना एक एक सेर खून देना पड़ा है। उसके बिना शायद मैं
अधिक सुखी होता और अच्छा मनुष्य हुआ होता। वर्तमान परिस्थिति बहुत ही
अंधकारमय प्रतीत होती है; किंतु मैं योद्धा हूँ, युद्ध करते करते ही मैं
मरूँगा, हार नहीं मानूँगा; इसी कारण तो बच्चों पर मैं नाराज हो जाता हूँ।
मैं तो उन्हें युद्ध करने के लिए नहीं बुला रहा हूँ--मैं तो सिर्फ यह
चाहता हूँ कि वे लोग मेरे युद्ध में बाधा न खड़ी करें।
अपने भाग्य के प्रति मुझे भी द्वेष नहीं है। किंतु हाय ! मैं चाहता हूँ
कि कोई व्यक्ति, मेरे बच्चों में से एक भी मेरे साथ रहकर सभी प्रतिकूल
अवस्थाओं में संग्राम करता रहे।
आप किसी प्रकार की दुश्चिन्ता न करें; भारतवर्ष में किसी भी कार्य के लिए
मेरी उपस्थिति आवश्यक है। पहले की अपेक्षा मेरा स्वास्थ्य अब काफ़ी
अच्छा है; शायद समुद्र-यात्रा से और भी अच्छा हो जाए। खैर, इस समय
अमेरिका में पुराने मित्रों से मिलने के सिवाय और कुछ काम मैंने नहीं
किया। मेरी यात्रा का खर्च 'जो' के पास से मिल जाएगा, इसके अतिरिक्त श्री
लेगेट के पास मेरे कुछ पैसे हैं। भारत में कुछ दान मिलने की मुझे आशा है।
भारत के विभिन्न प्रान्तों के अपने मित्रों में से किसी से भी मैं नहीं
मिल पाया। मुझे आशा है कि पंद्रह हजार रुपये एकत्र हो जाएंगे, जिससे पचास
हज़ार पूरे हो जाएंगे। फिर इसको जन-संपत्ति करार दे देने से नगरपालिका के
कर से मुक्ति मिल जाएगी। यदि मैं पंद्रह हजार नहीं एकत्र कर सकता हूँ, तो
वहाँ पर प्राणोत्सर्ग कर देना बेहतर है, बजाए अमेरिका में समय गँवाने के।
जीवन में मैंने अनेक गलतियाँ की हैं; किंतु उनमें प्रत्येक का कारण रहा
है अत्यधिक प्यार। अब प्यार से मुझे घृणा हो गई है ! हाय ! यदि मेरे
पास भक्ति बिल्कुल न होती ! वास्तव में मैं निर्विकार और कठोर वेदांती
होना चाहता हूँ ! जाने दो, यह जीवन तो समाप्त ही हो चुका। अगले जन्म में
प्रयत्न करूँगा। मुझे इस बात का दु:ख है-खासकार आजकल--कि मेरे बंधुओं को
मेरे पास से आशीर्वाद की अपेक्षा कष्ट ही अधिक मिला है। जिस शांति और
निर्जनता की खोज मैं बहुत समय से कर रहा हूँ, मैं कभी प्राप्त न कर सका।
अनेक वर्षो पूर्व मैं हिमालय गया था, मन में यह दृढ़ निश्चय कर कि मैं
वापस नहीं आऊँगा। इधर मुझे समाचार मिला कि मेरी बहन ने आत्महत्या कर ली।
फिर मेरे दुर्बल हृदय ने मुझे उस शांति की आशा से दूर फेंक दिया ! ! उसी
दुर्बल हृदय ने, जिन्हें मैं प्यार करता हूँ, उनके लिए भिक्षा माँगने
मुझे भारत से दूर फेंक दिया, और आज मैं अमेरिका में हूँ! शांति का मैं
प्यासा हूँ; किंतु प्यार के कारण मेरे हृदय ने मुझे उसे न पाने दिया।
संग्राम और यातनाएँ, यातनाएँ और संग्राम ! खैर, मेरे भाग्य में जो लिखा
है वही होने दो, और जितने शीघ्र यह समाप्त हो जाए, उतना ही अच्छा है।
लोग कहते हैं कि मैं भावुक हूँ, किंतु परिस्थितियों के बारे में सोचिए तो
सही! ! आपक मुझसे कितना स्नेह करती हैं --आप मुझ पर कितनी कृपा रखती हैं
! फिर भी मैं आपके दु:खों का कारण बना ! इस कारण मैं बहुत दु:खी हूँ,
किंतु जो होना था, हो गया-अब उसका कोई उपाय नहीं ! अब मैं ग्रथियाँ काटना
चाहता हूँ या इसी प्रयत्न में मर जाऊँगा।
आपकी संतान,
विवेकानंद
पुनश्च--महामामा की इच्छा पूर्ण हो ! सैन फै़ंसिस्को होकर भारत जाने का
ख़र्च मैं 'जो' से माँगूँगा। यदि वह देगी तो शीघ्र ही मैं जापान होते हुए
भारत के लिए प्रस्थान करूँगा। इसमें एक माह लग जाएगा। आशा है कि भारत में
काम चलाने लायक या उसे सुप्रतिष्ठित करने लायक दान वहाँ इकट्ठा कर
सकूँगा।.... काम की आखि़री अवस्था बहुत ही अंधकारमय और बहुत ही विश्रृंखल
दिखायी दे रही हैं--अवश्य मुझे ऐसा ही प्रतीत हो रहा था। किंतु आप यह
कदापि न सोचें कि मैं एक क्षण के लिए भी रण छोड़ दूँगा। भगवान आपको
आशीर्वाद दें। काम करते करते आख़िर रास्ते मे मरने के लिए प्रभु मुझे यदि
अपने छकड़े का घोड़ा भी बनायें, तो भी 'उनकी' इच़्छा पूर्ण हो। अभी आपका
पत्र पाकर मैं अति आनंदित हूँ, जो मुझे बहुत वर्षों तक नहीं मिला। वाह
गुरु की फतह ! गुरुदेव की जय हो ! ! हाँ, जैसी भी अवस्था क्यों न
आए--जगत आए, नरक आए, देवगण आयें, माँ आए--मैं संग्राम में लड़ता ही
रहूँगा, हार कदापि नहीं मानूँगा। रावण ने साक्षात् भगवान के साथ युद्ध कर
तीन जन्म में मुक्तिलाभ किया था! महामाया के साथ युद्ध करना तो गौरव की
बात है !
भगवान आपका एवं आपके सभी इष्ट-मित्रों का मंगल करे। मैं जितना योग्य
हूँ, उससे अधिक, अत्यधिक आपने मेरे लिए किया है।
क्रिश्चिन तथा तुरीयानंद को मेरा प्यार।
आपका,
विवेकानंद
(श्रीमती ओलि बुल को लिखित)
२२ दिसंबर, १८९९
प्रिय धीरा माता,
आज कलकत्ते के एक पत्र से विदित हुआ कि आपके भेजे हुए 'चेक' वहाँ पहुँच गए
हैं; उस पत्र में अनेक धन्यवाद तथा कृतज्ञता प्रकट की गई है।
लंदन की कुमारी सूटर ने छपे हुए पत्र के द्वारा मुझे नव वर्ष का अभिवादन
भेजा है। मेरा विश्वास है कि आपने उनको जो हिसाब भेजा है, अब तक उन्हें
वह मिल गया होगा। आपके पते पर सारदानंद के नाम जो पत्र आए हों, उन्हें
भेज देने की कृपा करें।
हाल में मेरा शरीर अस्वस्थ हो गया था; इसलिए शरीर मलने वाले डॉक्टर ने
रगड़ रगड़कर मेरे शरीर से कई इंच चमड़ा उठा डाला है ! अभी तक मैं उसकी
वेदना अनुभव कर रहा हूँ। निवेदिता का एक अत्यंत आशाप्रद पत्र मुझे मिला
है। पसाडेना में मैं पूर्ण परिश्रम कर रहा हूँ एवं मुझे आशा है कि यहाँ पर
मेरा कार्य कुछ अंशों में सफल होगा। यहाँ पर कुछ लोग अत्यंत उत्साही हैं।
इस देश में 'राजयोग' पुस्तक वास्तव में बहुत ही सफल सिद्ध हुई है। मानसिक
दशा की ओर से यथार्थ में मैं पूर्ण रूप से अच्छा हूँ; इस समय मुझे जो
शांति प्राप्त है, वह पहले कभी भी मुझे प्राप्त नहीं हुई थी। जैसे कि
उदाहरणस्वरूप कहा जा सकता है कि वक्तृता देने से मेरी नींद में किसी
प्रकार की हानि नहीं होती है। यह निश्चय ही एक प्रकार का लाभ है। कुछ कुछ
लिखने का कार्य भी कर रहा हूँ। यहाँ की वक्तृताओं को एक संकेतलिपिक ने
'नोट' किया था। यहाँ लोग इनको प्रकाशित कराना चाहते हैं।
'जो' के पास स्वामी 'स' ने जो पत्र लिखा है, उससे पता चला कि मठ में सब
कुशलपूर्वक हैं एवं कार्य भी अच्छी तरह से चल रहा है। जैसा कि होता रहा
है, योजनाएँ भी क्रमशः कार्य में परिणत हो रही हैं। किंतु मेरा कथन तो यही
है कि सब कुछ माँ ही जानती हैं। वे मुझे मुक्ति प्रदान करें तथा अपने
कार्य के लिए किसी दूसरे व्यक्ति को चुन लें। हाँ, एक बात और है और वह यह
कि गीता में फलाकांक्षा छोड़कर कार्य करने का जो उपदेश दिया गया है, उसके
ठीक-ठीक मानसिक अभ्यास का यथार्थ उपाय क्या है- यह मैंने आविष्कृत कर लिया
है। ध्यान, मनःसंयोग तथा एकाग्रता के साधन के संबंध में मुझे ऐसा ज्ञान
प्राप्त हुआ है कि उसके अभ्यास से सब प्रकार के कष्ट-उद्वेगों से हम
छुटकारा पा सकते हैं। मन को अपनी इच्छानुसार किसी स्थल पर केंद्रित कर
रखने के कौशल के सिवाय यह और कुछ नहीं है। अस्तु, आपकी अपनी दशा क्या है-
बेचारी धीरा माता! माँ बनने में यही संकट है, यही दण्ड है ! हम लोग केवल
अपनी ही बातें सोचते हैं, माता के लिए कभी चिंतित नहीं होते। आप किस
प्रकार हैं, आपकी स्थिति कैसी है ? आपकी पुत्री तथा श्रीमती ब्रिग्स के
क्या समाचार हैं?
तुरीयानंद संभवतः अब तक स्वस्थ हो उठा होगा एवं कार्य में जुट गया होगा।
बेचारे के भाग्य में केवल कष्ट है ! किंतु आप इस पर ध्यान न देना। यातनाओं
के भोगने में भी एक प्रकार का आनंद है, यदि वे दूसरों के लिए हों। क्या यह
ठीक नहीं ? श्रीमती हेगेट कुशलपूर्वक हैं; 'जो' भी ठीक हैं। और वे कह रही
हैं कि मैं भी ठीक ही हूँ। हो सकता है कि उनकी बातें ठीक हों। अस्तु, मैं
कार्य करता हुआ चला जा रहा हूँ और कार्यों में संलग्न रहता हुआ ही मरना
चाहता हूँ- अवश्य ही यदि माँ की यही इच्छा हो। मैं संतुष्ट हूँ।
आपकी चिरसंतान,
विवेकानंद
(भगिनी निवेदिता को लिखित)
४२१, २१वां रास्ता,
लॉस एंजिलिस,
२३ दिसम्बर, १८९९
प्रिय निवेदिता,
वास्तव में मैं चुंबकीय चिकित्सा पद्धति (magnetic healing) से क्रमशः
स्वस्थ होता जा रहा हूँ। सच बात यह है कि अब मैं अच्छी तरह से हूँ। मेरे
शरीर का कोई भी यंत्र कभी नहीं बिगड़ा-स्नायु संबंधी दुर्बलता तथा अजीर्ण
ने ही मेरे शरीर में गड़बड़ी पैदा की थी।
अब मैं प्रतिदिन या तो भोजन से पहले हो या बाद में कोसों तक टहलने जाता
हूँ। मैं पूर्णरूप से स्वस्थ हो चुका हूँ और मेरा यह दृढ़ विश्वास है कि
मैं ठीक ही रहूँगा। अब चक्र घूम रहा है-माँ उसे घुमा रही हैं। उनका कार्य
जब तक समाप्त नहीं होता, तब तक वे मुझे छोड़ना नहीं चाहतीं, असली बात यही
है।
देखो, इंग्लैण्ड उन्नति की ओर किस प्रकार से अग्रसर हो रहा है। इस
खून-खराबी के बाद वहाँ के लोगों को इस प्रकार की लगातार लड़ाई, लड़ाई,
लड़ाई की अपेक्षा महान एवं श्रेष्ठ वस्तु के चिंतन का अवकाश प्राप्त होगा।
यही हमारे लिए सुअवसर है। अब हम पृथक्-पृथक् टोली बनाकर कुछ प्रयत्नशील
होकर उन्हें पकड़ेंगे, पर्याप्त मात्रा में धन एकत्र करेंगे एवं उसके बाद
भारत के कार्य को भी पूर्णरूप से चालू कर देंगे।
मेरी प्रार्थना है कि इंग्लैण्ड केपकॉलोनी से हाथ धो बैठे; इस प्रकार अपनी
शक्ति को भारत पर केंद्रित करने में वह समर्थ हो सकेगा। ये तट-प्रदेश एवं
प्रायद्वीप इंग्लैण्ड के लिए किसी लाभ के नहीं-सिवाय इसके कि इंग्लैण्ड
इसके झूठे गर्व से फूल उठे, जो इसके संचित खून एवं संपत्ति दोनों को
विनष्ट कर देगा। चारों ओर की अवस्थाएँ बहुत कुछ आशाप्रद प्रतीत हो रही
हैं; अतः तैयार हो जाओ। चारों बहन तथा तुम मेरा स्नेह जानना।
विवेकानंद
(श्रीमती ओलि बुल को लिखित)
९२१ पश्चिम, २१वाँ रास्ता,
लॉस एंजिलिस, २७ दिसम्बर, १८९९
प्रिय धीरा माता,
आगामी नववर्ष आपके लिए शुभ हो एवं इसी प्रकार से अनेक बार होता रहे- मेरी
यही अभिलाषा है। मेरा स्वास्थ्य पहले की अपेक्षा बहुत कुछ अच्छा है तथा
कार्य करने लायक यथेष्ट शक्ति भी मुझे प्राप्त हो गई है। अब मैंने कार्य
भी प्रारम्भ कर दिया है तथा सारदानंद को कुछ रुपये-१३०० रुपये कानूनी
कार्यवाही के लिए भेज दिए हैं। आवश्यकता पड़ने पर और भी भेज दूंगा। तीन
सप्ताह से सारदानंद का कोई समाचार नहीं मिला है; और आज सूर्योदय से पूर्व
मैंने एक दुःस्वप्न देखा है। मैं बीच बीच में बेचारे बालकों के साथ न जाने
कितना कठोर व्यवहार करता हूँ ! फिर भी ऐसे आचरणों के बावजूद भी वे यही
जानते हैं कि मैं ही उनका सर्वोत्तम मित्र हूँ।
राजयोग एवं महाराज खेतड़ी के द्वारा प्राप्त जो ५०० पौण्ड से कुछ अधिक रकम
मैंने स्टर्डी के पास रख छोड़ी थी, वह श्री लेगेट पा चुके हैं। अब श्री
लेगेट के पास मेरे करीब एक हज़ार डालर हो गये हैं। यदि मैं मर जाऊँ, तो
कृपया यह रकम मेरी माँ के पास भेज दीजियेगा। तीन सप्ताह पूर्व मैंने उनको
तार' द्वारा यह सूचित कर दिया है कि मैं अब संपूर्ण रूप से स्वस्थ हो चुका
हूँ। मुझे यदि और अधिक अस्वस्थ न होना पड़े, तो जैसा स्वास्थ्य इस समय है,
उसी से कार्य चलता रहेगा। मेरे लिए आप क़तई चिंतित न हों; पूर्ण उद्यम के
साथ मैं कार्य में जुट गया हूँ।
मुझे दुःख है कि मैं अन्य कोई कहानी नहीं लिख सका हूँ। उसके अलावा मैंने
और भी कुछ कुछ लिखा है एवं प्रतिदिन ही कुछ लिखने की आशा रखता हूँ। पहले
की अपेक्षा इस समय में अधिक शांति का अनुभव कर रहा हूँ तथा यह समझ गया हूँ
कि इस शांति को स्थायी बनाये रखने का एकमात्र उपाय दूसरों को शिक्षा
प्रदान करना है। कार्य ही मेरे लिए एकमात्र 'सेफ्टी वाल्व' (व्यर्थ गैस
निकाल कर यंत्र की रक्षा करने का द्वार) है। मुझे कुछ परिष्कृत मस्तिष्क
वाले व्यक्तियों की आवश्यकता है, जो कि उद्यम से कार्य करने के साथ ही साथ
मेरे आनुषंगिक समस्त विषयों की भी देखभाल कर सकें। भारत में ऐसे लोगों की
खोज के लिए बहुत समय नष्ट होने का मुझे डर है। और यदि ऐसे लोग वहाँ
प्राप्त भी हो, तो उन्हें किसी पाश्चात्य वासी से दीक्षा लेना उचित है।
साथ ही मेरे लिए कार्य संपन्न करना तभी संभव होता है, जब कि मुझे पूर्णतया
अपने ही पैरों पर खड़ा होना पड़ता है। एकाकी अवस्था में मेरी शक्ति का
विकास अधिक होता है। माँ की इच्छा भी मानो ऐसी ही है। 'जो' का यह विश्वास
है कि माँ के हृदय में अनेक बड़ी बड़ी योजनाएं हैं- मैं चाहता हूँ कि उसकी
धारणा सत्य हो। 'जो' तथा निवेदिता मानो वास्तव में भविष्यद्रष्टा बनती जा
रही हैं। मैं केवल इतना ही कह सकता हूँ कि मैंने अपने जीवन में जो कुछ
कष्ट उठाए हैं, जो कुछ यातनाएं सही है- ने सब आनंदपूर्ण आत्मत्याग में
परिणत होंगी, यदि माँ पुनः भारत की ओर दृष्टिपात करें।
कुमारी ग्रीनस्टिडल ने मुझे एक अत्यंत सुंदर पत्र लिखा है-उसका अधिकांश
भाग आप से संबंधित है। तुरीयानंद के बारे में उनकी धारणा भी उच्च है।
तुरीयानंद से मेरा प्यार कहें। मुझे विश्वास है कि वह अच्छी तरह से कार्य
संपादन कर सकेगा। उसमें साहस तथा धैर्य है।
मैं शीघ्र कार्य करने के लिए कैलिफ़ोर्निया जा रहा हूँ। कैलिफोर्निया
छोड़ते समय तुरीयानंद को मैं वहाँ पर बुला लूंगा और उसे प्रशान्त महासागर
के किनारे पर कार्य में जुटा दूंगा। मेरी यह निश्चित धारणा है कि वहाँ एक
विशाल कार्यक्षेत्र है। 'राजयोग नामक पुस्तक यहाँ पर बहुत ही प्रचलित है,
ऐसा भान होता है। कुमारी ग्रीनस्टिडल को आपके मकान में बहुत शांति मिली
है, एवं वे आनंदपूर्वक हैं। इससे मुझे अत्यंत खुशी हुई। दिनोंदिन सब
विषयों में उन्हें सुविधा प्राप्त हो। उनमें अपूर्व कार्यदक्षता तथा उद्यम
हैं।
'जो' ने एक महिला-चिकित्सक का आविष्कार किया; वे शरीर मलकर चिकित्सा करती
हैं। हम दोनों ही उनके चिकित्साधीन हैं। 'जो' का यह ख्याल है कि उन्होंने
मुझे बहुत कुछ चंगा कर दिया है। और उसका खुद का भी यह दावा है कि उस पर भी
चिकित्सा का अलौकिक प्रभाव हुआ है। विचित्र चिकित्सा के फलस्वरूप अथवा
कैलिफ़ोर्निया के वजन (ozone) के कारण या वर्तमान ग्रहदशा दूर हो जाने की
वजह से, चाहे जो भी कुछ कारण हो, मैं स्वस्थ हो रहा हूँ। भरपेट भोजन के
बाद तीन मील पैदल घूमना निस्संदेह एक बहुत बड़ी बात है !
ओलिया को मेरा हार्दिक स्नेह तथा आशीर्वाद दें तथा डॉ० जेम्म एवं बोस्टन
के अन्यान्य बंधुओं से मेरा प्यार कहें।
आपकी चिरसंतान
विवेकानंद
(कुमारी मेरी हेल को लिखित)
द्वारा श्रीमती ब्लाजेट,
९२१ पश्चिम, २१वीं स्ट्रीट,
लॉस एंजिलिस,
२७ दिसम्बर, १८९९
प्रिय मेरी,
क्रिसमस और नव वर्ष तुम्हारे लिए सुख तथा उल्लासपूर्ण हों और इन्हीं जैसा
तुम्हारा जन्मदिन बार-बार आवे। ये सब शुभकामनाएँ, प्रार्थनाएँ तथा बधाइयाँ
तुम्हें एक साँस में भेज रहा हूँ। तुम जानकर प्रसन्न होगी कि मैं स्वस्थ
हो गया हूँ। डॉक्टर कहते हैं कि यह केवल बदहजमी थी, हृदय या गुर्दे की
खराबी नहीं; अब कुछ नहीं है। और अब मैं दिन में तीन मील तक घूमता हूँ- वह
भी डटकर भोजन कर लेने के बाद!
जरा सोचो तो, जिस व्यक्ति ने मेरा इलाज किया वह मेरे धूम्रपान करने पर बल
देता है ! अतः मैं ठाठ से धूम्रपान कर रहा हूँ और इससे मुझे आराम ही है।
स्पष्ट रूप से कहूँ तो यह घबराहट आदि सब अजीर्ण के कारण ही थी और कुछ
नहीं।
मैं काम भी कर रहा हूँ; पर कठिन परिश्रम नहीं; लेकिन फिर मुझे इसकी परवाह
भी नहीं, इस बार मैं पैसा पैदा करना चाहता हूँ। यह सब मार्गट से कह देना,
विशेषकर धूम्रपान वाली बात। तुम जानती हो मेरा इलाज कौन कर रहा है? कोई
डाक्टर नहीं, कोई 'क्रिश्चियन साइंस हीलर' (Christian science healer)
नहीं, बल्कि एक महिला 'मैगनेटिक हीलर' (magnetic healer), जो जितनी बार
मेरा इलाज करती हैं, उतनी बार मुझे लगता है कि मेरी चमड़ी छिल गई। वे
चमत्कार करती हैं- केवल घर्षण द्वारा आपरेशन करती हैं, यहाँ तक आंतरिक
आपरेशन भी, जैसा कि उनके मरीज मुझे बताते हैं !
काफ़ी रात हो गई है। मुझे मार्केट, हैरियट, ईसावेल तथा 'मदर चर्च' को
अलग-अलग पत्र लिखना छोड़ना पड़ेगा। आधा काम तो इच्छा से ही पूरा हो जाता
है। वे सब जानती हैं कि मैं उन्हें कितने उत्कट रूप से चाहता हूँ। अतः इस
समय तुम मेरे लिए माध्यम बन जाओ और उन तक नव वर्ष का मेरा संदेश पहुँचा
दो।
यहाँ जाड़ा बिल्कुल उत्तर भारत जैसा है, अलबत्ता कभी कभी दिन थोड़े गर्म
हो जाते हैं। गुलाब भी यहाँ हैं और सुन्दर ताड़ भी। खेतों में जौ की फसल
खड़ी है। यहाँ जिस काटेज में मैं रहता हूँ, उसके चारों ओर गुलाब और दूसरे
कई फूल लगे हैं। मेरी मेजबान श्रीमती ब्लाजेट शिकागो की महिला हैं-मोटी,
बूढ़ी और अत्यंत हाजिरजवाब। शिकागो में उन्होंने मेरा व्याख्यान सुना था
और मेरे प्रति मातृवत् व्यवहार करती हैं।
मुझे अत्यंत खेद है कि अंग्रेजों ने दक्षिणी अफ्रीका में एक तातार को पकड़
लिया। तंबू के बाहर ड्यूटी पर तैनात एक सैनिक ने चिल्लाकर कहा कि उसने एक
तातार को पकड़ लिया है। "उसे अन्दर ले आओ-तंबू के भीतर से हुक्म आया। "वह
नहीं आयेगा"- संतरी ने उत्तर दिया। "तब तुम खुद चले आओ, दुबारा हुक्म
सुनाई दिया। "वह मुझे भी आने नहीं देता।" इसी से मुहावरा बना 'तातार
पकड़ना'। तुम कोई न पकड़ना।
इस समय मैं प्रसन्न हूँ और आशा करता हूँ कि शेष जीवन ऐसा ही रहूंगा। इस
समय तो मैं 'क्रिश्चियन साइंस' की मनः स्थिति में हूँ- कुछ भी बुरा नहीं
है, और 'प्रेम ही सब चालों में तुर्पचाल।'
अगर मैं प्रचुर धन अर्जित कर सकता, तो मुझे बड़ी खुशी होती। कुछ तो कर भी
रहा हूँ। मार्गट से कहो कि मैं काफी रुपया पैदा करने जा रहा हूँ और जापान,
हॉनॉलूलू, चीन और जावा होते हुए घर वापस जा रहा हूँ। जल्दी रुपया कमाने के
लिए यह एक उत्तम स्थान है, सैन फ्रान्सिस्को इससे भी अच्छा है। क्या उसने
कुछ रुपया कमाया ?
तुम्हें करोड़पति नहीं मिला ? क्यों नहीं तुम आधे या चौथाई करोड़ से शुरू
करती ? कुछ भी न होने से कुछ होना अच्छा है। हमें तो रुपया चाहिए, फिर वह
मिशिगन झील में जाए, हमें कोई आपत्ति नहीं। अभी उस दिन यहाँ हल्का भूकंप
आया था। मुझे आशा है यह शिकागो भी गया है और वहाँ ईसाबेल के घर-घरौंदे
उलट-पुलट कर रख दिये हैं। काफ़ी देर हो रही है। मुझे जंभाई आ रही है,
इसलिए यहीं छोड़ता हूँ। विदा। आशीर्वाद तथा स्नेह सहित-
विवेकानंद
(श्रीमती ओलि बुल को लिखित)
१७ जनवरी, १९००
प्रिय धीरा माता,
सारदानंद के लिए प्रेषित कागजात के साथ आपका पत्र मिला; उसमें कुछ सुसंवाद
भी है। इस सप्ताह में और भी कुछ संवाद पाने की आशा में है। आपने अपनी
योजनाओं के संबंध में कुछ भी तो नहीं लिखा है। कुमारी ग्रीनस्टिङल ने मुझे
एक पत्र लिखकर आपके प्रति अपनी गंभीर कृतज्ञता प्रकट की है-ऐसा कौन है जो
आपके प्रति कृतज्ञता प्रकट किए बिना रह सकता है? आशा है कि आजकल तुरीयानंद
भली-भांति कार्य में संलग्न होगा।
सारदानंद को २००० रु० भेजने में समर्थ हो सका हूँ। इसमें कुमारी मैक्लिऑड
एवं श्रीमती लेगेट सहायक सिद्ध हुई; अधिकांश उन लोगों द्वारा दिया गया है,
शेषांश व्याख्यान से प्राप्त हुआ। यहाँ पर अथवा अन्यत्र कहीं वक्तृता के
द्वारा विशेष कुछ होने जाने की मुझे कोई आशा नहीं है। उसमें मेरा
व्यय-निर्वाह भी नहीं होता है। केवल इतना ही नहीं, पैसा देने की संभावना
के कारण कोई भी दिखाई नहीं देता है। इस देश में वक्तृता के क्षेत्र का
उपयोग विशेष रूप से किया गया है और लोगों में वक्तृता सुनने की भावना
समाप्त हो चुकी है।
निस्संदेह मेरा स्वास्थ्य अच्छा है। चिकित्सक की राय में मैं कहीं भी जाने
के लिए स्वच्छंद हूँ; निदान चलता रहेगा, और मैं कुछ ही महीनों में
पूर्णतया स्वस्थ हो जाऊंगा। वह इस बात पर दृढ़ है कि मैं ठीक हो चुका हूँ;
शेष कमियाँ प्रकृत्या पूरी हो जाएंगी। खासकर स्वास्थ्य सुधारने के लिए ही
मैं यहाँ पर आया था और उसका सुफल मुझे प्राप्त हुआ है साथ-साथ २००० रु० भी
मिले, जिससे कानूनी कार्यवाहियों का खर्च भी संभल गया। अब मुझे ऐसा प्रतीत
हो रहा है कि वक्तृता-मंच पर खड़े होने का मेरा कार्य समाप्त हो चुका हैं;
उस प्रकार के कार्यों द्वारा अपना स्वास्थ्य नष्ट करना अब मेरे लिए आवश्यक
नहीं है।
अब मुझे यह स्पष्ट दिखायी दे रहा है कि मठ संबंधी सारी चिंताओं से मुझे
अपने को मुक्त करना होगा और कुछ समय के लिए माँ के पास जाना होगा। मेरी
वजह से उन्होंने बहुत कष्ट उठाया। उनके अंतिम दिन को व्यवधान रहित बनाने
के लिए मुझे प्रयत्न करना चाहिए। क्या आप जानती हैं कि महान शंकराचार्य को
भी ठीक ऐसा ही करना पड़ा था ? माँ के कुछ अंतिम दिनों में उनको भी अपनी
माँ के पास लौटना पड़ा था। मैं इसको स्वीकार करता है, मैं आत्मसमर्पण कर
चुका हूँ। सदा से अधिक इस समय मैं शांत हूँ। केवल आर्थिक दृष्टि से ही कुछ
कठिनाई है। हाँ, भारतीय लोग कुछ ऋणी भी हैं। मैं मद्रास तथा भारत के कुछ
मित्रों से प्रयत्न करूँ। अस्तु, मुझे अवश्य प्रयत्न करना चाहिए, क्योंकि
मुझे यह पूर्वाभास हो चुका है कि मेरी माँ अब अधिक दिनों तक जीवित न रह
सकेंगी। इस प्रकार के सर्वश्रेष्ठ त्याग का आह्वान भी मुझे मिल रहा है कि
उच्चाभिलाषा, नेतृत्व तथा यशाकांक्षाओं को मुझे त्यागना होगा। मेरा मन
इसके लिए प्रस्तुत है तथा मुझे यह तपस्या करनी होगी। लेगेट के पास के एक
हजार डालर, और यदि कुछ अधिक एकत्र किया जा सके, आवश्यकता पड़ने पर काम
चलाने के लिए पर्याप्त होंगे। क्या आप मुझे भारत वापस भेज देंगी ? मैं हर
क्षण तत्पर हूँ। मुझसे मिले बिना फ्रांस न जायें। अब मैं कम से कम 'जो'
एवं निवेदिता के कल्पना-विलासों की तुलना में व्यावहारिक बन गया हूँ। मेरी
ओर से वे अपनी कल्पनाओं को रूप प्रदान करें- मेरे निकट अब उनका स्वप्नों
से अधिक कोई मूल्य नहीं है। मैं, आप, सारदानंद एवं ब्रह्मानंद के नाम से
मठ की वसीयत कर देना चाहता है। ज्यों ही सारदानंद के यहाँ से कागजात मेरे
पास आ जायेंगे, मैं यह कर दूँगा। तब मुझे छुट्टी होगी। मैं चाहता हूँ
विश्राम, एक मुट्ठी अन्न, कुछ एक पुस्तकें तथा कुछ विद्वत्तापूर्ण कार्य
'माँ' अब मुझे यह प्रकाश स्पष्ट रूप से दिखा रही हैं। इतना अवश्य है कि
उन्होंने सर्वप्रथम इसका आभास आपको ही दिया था। किंतु उस समय मुझे विश्वास
नहीं हुआ था। किंतु फिर भी अब यह स्पष्ट है कि १८८४ में अपनी माँ को
छोड़ना एक महान त्याग था और आज अपनी माँ के पास लौट जाना उससे भी बड़ा
त्याग है। शायद 'माँ की यही इच्छा है कि प्राचीन काल के महान् आचार्य की
भांति मैं भी कुछ अनुभव करूं, है न यह बात ? मैं अपनी अपेक्षा आपकी
परिचालना में अधिक विश्वास रखता हूँ। 'जो' एवं निवेदिता के हृदय महान् है;
किंतु मेरे परिचालनार्थं 'माँ' अब आपको प्रकाश भेज रही हैं। क्या आप
प्रकाश देख रही हैं? आप क्या परामर्श देती हैं? कम से कम मुझे बिना घर
भेजे आप इस देश से बाहर मत जाइए।
मैं तो केवल एक बच्चा हूँ; मुझे कौन सा कार्य करना है? मैं अपना अधिकार
आपको सौंप रहा हूँ। मुझे यह दिखायी दे रहा है। वक्तृता-मंच से अब वाणी
प्रचार करना मेरे लिए संभव नहीं है। यह बात किसी को मत बतायें- यहाँ तक कि
'जो' को भी नहीं। इससे मैं आनन्दित ही हूँ। मैं विश्राम चाहता हूँ। मैं थक
गया हूँ, ऐसी बात नहीं है; किंतु अगला अध्याय होगा-वाक्य नहीं, किंतु
अलौकिक स्पर्श, जैसा कि श्री रामकृष्ण देव का था। 'शब्द' आपके पास चले गये
हैं और 'आवाज' निवेदिता के यहाँ। अब मुझमें ये नहीं हैं। मैं प्रसन्न हूँ।
मैं समर्पित हो चुका हूँ। केवल मुझे भारत में ले चलिए, क्या आप नहीं ले
चलेंगी ? 'माँ' आपको ऐसा करने के लिए प्रेरित करेंगी, मैं निश्चिंत हूँ।
आपकी चिरसंतान
विवेकानंद
(भगिनी निवेदिता को लिखित)
लॉस एंजिलिस, कैलिफ़ोनिया,
२४ जनवरी, १९००
प्रिय निवेदिता
मुझे लगता है कि मैं जिस शांति और विश्राम की खोज में हूँ, वह मुझे कभी
प्राप्त नहीं होगा। फिर भी महामाया दूसरों का कम से कम मेरे स्वदेश
का-मेरे द्वारा कुछ कल्याण करा रही हैं; और इस उत्सर्ग के भाव का अवलंबन
कर अपने भाग्य के साथ समझौता करना बहुत कुछ सरल है। हम सभी अपने अपने
भावों में आत्म-बलिदान कर रहे हैं। महापूजन हो रहा है-एक महान बलिदान के
बिना और किसी प्रकार से इसका कोई अर्थ नहीं निकलता है। जो
स्वेच्छापूर्वक अपने मस्तक आगे बढ़ा देते हैं, वे अनेक यातनाओं से
मुक्ति पा जाते हैं। और जो बाधा उपस्थित करते हैं, उन्हें बलपूर्वक दबाया
जाता है एवं उनको कष्ट भी अधिक भोगना पड़ता है। मैं अब स्वेच्छा से
आत्मसमर्पण करने के लिए कटिबद्ध हूँ।
तुम्हारा,
विवेकानंद
(भगिनी निवेदिता को लिखित)
कुमारी मिड् का मकान,
४४७, डगलस विल्डिंग,
लॉस एंजिलिस, कैलिफ़ोर्निया,
१५ फ़रवरी, १९००
प्रिय निवेदिता,
तुम्हारा--का पत्र आज मुझे पॅसाडेना में प्राप्त हुआ। मालूम होता है कि
'जो' तुम्हें शिकागों में नहीं मिल सकी; किंतु न्यूयार्क से उन लोगों का
कोई समाचार मुझे अभी तक प्राप्त नहीं हुआ है। इंग्लैंड से बहुत से
अंग्रेजी समाचार-पत्र मुझे प्राप्त हुए हैं-लिफाफे पर एक पंक्ति में मेरे
प्रति शुभेच्छा प्रकट की गई है एवं उस पर एफ़.एच. एम. के दस्तख़त हैं।
उनमें विशेष जरूरी चीज़ कुछ भी नहीं थी। कुमारी मूलर को मैं एक पत्र लिखना
चाहता था; किंतु मुझे उनका पता नहीं मालूम है। साथ ही मुझे यह डर भी हुआ
कि कहीं पत्र लिखने से वे भयभीत न हो उठें !
इसी बीच श्रीमती लेगेट ने मेरी सहायता के लिए दस साल तक वार्षिक 100 डालर
के हिसाब से अनुदान की योजना प्रारंभ कर दी तथा सन् 1900 के लिए 100 डालर
देकर उसने इस सूची में सबसे पहले अपना नाम लिखाया, दो व्यक्ति उन्होंने
इसके लिए और भी ढूँढ़े हैं। फिर मेरे सब मित्रों के पास उन्होंने इसमें
सम्मिलित होने के लिए पत्र लिखना प्रारंभ कर दिया। जब वे श्रीमती मिलर को
लिखती रहीं, मैं शर्मिंदा हो गया। किंतु मेरे जानने के पहले उन्होंने
लिखा था। एक बहुत ही नम्र किंतु उत्साहहीन पत्र, मेरी के द्वारा लिखा
हुआ, श्रीमती हेल के यहाँ से उसे मिला, जिसमें उसने मेरे प्रति अपने
स्नेह का विश्वास दिलाते हुए अपनी असमर्थता प्रकट की थी। श्रीमती हेल
एवं मेरी अप्रसन्न हैं, ऐसा मुझे डर है। लेकिन इसमें मेरा कुछ भी दोष
नहीं है !!
श्रीमती सेवियर के पत्र से मुझे यह विदित हुआ कि कलकत्ते में निरंजन
अत्यंत बीमार पड़ गया है-पता नहीं, उसका शरीरांत हो गया है या नहीं।
अस्तु, निवेदिता, अब मैं नितांत कठोर बन चुका हूँ- पहले की अपेक्षा मेरी
दृढ़ता बहुत कुछ बढ़ चुकी है-मेरा हृदय मानो लोहे की पत्तियों से जड़ दिया
गया है। अब मैं संन्यास जीवन के समीप पहुँचा जा रहा हूँ। दो सप्ताह से
सारदानंद के यहाँ कोई भी समाचार नहीं मिला। मुझे प्रसन्नता है कि तुम
कहानियाँ पा गईं; अगर उचित समझो तो फिर से लिख डालो। उनको प्रकाशित करा
दो, अगर कोई ऐसा मिल सके। उससे प्राप्त रकम अपने कार्य में लगाओ। मुझे
कोई जरूरत नहीं है। मैं अगले सप्ताह मैं सैनफ्रैंसिस्को जा रहा हूँ; आशा
है कि वहाँ पर मुझे सुविधाएँ प्राप्त होंगी। जब अगली बार मेरी से मिलो, तो
उससे कहो कि श्रीमती हेल की सालाना 100 डालर की सहायता से मुझे कुछ नहीं
करना है। उन लोगों का मैं बहुत कृतज्ञ हूँ।
डरने की कोई बात नहीं है-तुम्हारे विद्यालय के लिए धन अवश्य प्राप्त
होगा, इसमें कोई संदेह नहीं है। और यदि कदाचित् धन न मिले, तो उससे हानि
ही क्या है ? 'माँ' जानती हैं कि किस रास्ते से वे ले जाना चाहती हैं।
वे चाहे जिस रास्ते से ले जाएं, सभी रास्ते समान हैं। मुझे यह पता नहीं
है कि मैं शीघ्र ही पूर्व की और जाऊँगा अथवा नहीं। यदि जाने का सुयोग मिला
तो मैं निश्चित ही इण्डियाना जाऊँगा।
इस प्रकार के अन्तर्जातीय मिलन का उद्देश्य महान है-जैसे भी हो सके तुम
उसमें अवश्य सम्मिलित हो; और यदि तुम माध्यम बनकर कुछ भारतीय
महिला-समितियों को उसमें सम्मिलित कर सको, तो और भी अच्छा है।...
कुछ परवाह नहीं है, हमें सब कुछ सुविधाएँ प्राप्त होंगी। यह युद्ध ज्यों
ही समाप्त हो जाएगा, तत्क्षण हम इंग्लैंड पहुँच जाएंगे एवं वहाँ जोरशोर
से कार्य करने का प्रयत्न करेंगे-ठीक है न ? 'स्थिरा माता'को क्या कुछ
लिखा जाए ? यदि उन्हें लिखना तुम्हें उचित प्रतीत हो, तो उनका पता मुझे
भेज देना। उसके बाद क्या उन्होंने तुमको कोई पत्र लिखा है ?
[१]
कठोर एवं कोमल, सभी लोग ठीक हो जाएंगे-धैर्य बनाये रखो। ये जो तुम्हें
विविध अनुभव प्राप्त हो रहे हैं, मैं तो इसे ही पसंद करता हूँ। मुझे भी
शिक्षा मिल रही है। जिस समय हम कार्य करने के लिए उपयुक्त सिद्ध होंगे,
ठीक उसी समय धन और लोग अपने आप हमारे समीप आ पहुँचेगे! इस समय मेरी
स्नायु-प्रधान प्रकृति एवं तुम्हारी भावनाएँ आपस में मिल जाने से
गड़बड़ी हो सकती है। इसीलिए माँ मेरी स्नायुओं को धीरे आरोग्य प्रदान कर
रही हैं और तुम्हारी भावनाओं को भी शांत करती जा रही हैं। फिर हम अग्रसर
होंगे, इसमें संदेह ही क्या है। अब अनके महान कार्य संपन्न होंगे-यह
निश्चित जानना। अब हम प्राचीन देश यूरोप के मूलाधार तक को हिला डालेंगे।
मैं क्रमश: शांत तथा धीर बनता जा रहा हूँ-चाहे जो भी कुछ क्यों न हो, मैं
प्रस्तुत हूँ। अब की बार इस प्रकार से कार्य के जुट जाएंगे कि उसके पग-पग
पर हमें सफलता प्राप्त होगी-एक भी प्रयास व्यर्थ नहीं-यही मेरे जीवन का
अग्रिम अध्याय है। मेरा स्नेह जानना।
विवेकानंद
पुनश्च-तुम अपना वर्तमान पता लिखना।
वि.
(श्रीमती ओलि बुल को लिखित)
लॉस एंजिलिस,
१५ फ़रवरी, १९००
प्रिय धीरा माता,
यह पत्र आपको जब प्राप्त होगा, उससे पहले ही मैं सैन फ़्रांसिस्को रवाना
हो जाऊँगा। कार्य के संबंध में आपको सब कुछ विदित ही है। मैंने कोई विशेष
कार्य नहीं किया है; किंतु प्रतिदिन मेरा हृदय-देह एवं मन दोनों ही-अधिकतर
सबल बनता जा रहा है। किसी किसी दिन मुझे ऐसा प्रतीत होता है कि मैं सब कुछ
बरदाश्त कर सकता हूँ और सब प्रकार के दु:खों को भी सहन कर सकता हूँ।
कुमारी मूलर ने जो कागज का बंडल भेजा था, उसमें कोई उल्लेखनीय कागज नहीं
था। उनका पता न जानने के कारण मैंने उन्हें कुछ नहीं लिखा, इसके अलावा
मुझे डर भी था।
अकेले रहने पर ही मैं अधिक अच्छी तरह से कार्य कर सकता हूँ; और जब मैं
संपूर्णत: नि:सहाय रहता हूँ, तभी मेरे देह एवं मन सबसे अधिक अच्छे रहते
हैं ! जब मैं अपने गुरुभाइयों को छोड़कर आठ वर्ष तक अकेला रहा था, तब कभी
एक दिन के लिए भी मैं बीमार नहीं पड़ा था। अब पुन: अकेला रहने के लिए
प्रस्तुत हो रहा हूँ ! यह नि:संदेह एक आश्चर्य की बात है। किंतु माँ
मुझे उसी प्रकार रखना चाहती है-जैसे कि 'जो' कहती है 'अकेले गैण्डे की
तरह घूमना' अभीष्ट है।...बेचारे तुरीयानंद को न जाने कितना कष्ट उठाना
पड़ा है, किंतु उसने मुझे कुछ भी नहीं लिखा-वह नितांत सरल हृदय तथा
भोलाभाला है। श्रीमती सेवियर के पत्र से मालूम हुआ कि बेचारा निरंजनानंद
कलकत्ते में इतना अधिक बीमार हो गया है कि अब तक वह जीवित है अथवा नहीं,
यह भी नहीं कहा जा सकता। हाँ एक बात और है, सुख-दु:ख दोनों ही आपस में हाथ
पकड़कर चलना पसंद करते हैं। यह एक अद्भुत घटना है। वे मानो एक श्रृंखला
बाँधकर चलते हैं। मेरी बहन के पत्र से विदित हुआ कि उसने जिस कन्या को
पाला था, उसका देहांत हो गया। भारत के भाग्य में मानो दु:ख ही दु:ख लिखा
हुआ है। ठीक है, ऐसा ही होने दो ! सुख-दु:ख में अब किसी प्रकार की
प्रतिक्रिया मुझमें नहीं होती ! इस समय मानो मैं लोहे जैसा बन चुका हूँ।
होने दो-'माँ' की इच्छा ही पूर्ण हो !
गत दो वर्षों से मैंने जो अपनी दुर्बलता का परिचय दिया है, तदर्थ मैं
अत्यंत ही लज्जित हूँ। उसकी समाप्ति से मुझे खुशी है।
आपकी चिर स्नेहाबद्ध संतान,
विवेकानंद
(कुमारी मेरी हेल को लिखित)
२० फरवरी, १९००
प्रिय मेरी,
श्री हेल की मृत्यु के दु:खद समाचार के साथ तुम्हारा पत्र मुझे कल मिला।
मैं दु:खित हूँ, क्योंकि मठ-जीवन की शिक्षाओं के बावजूद भी हृदय की
भावनाएँ बनी रहती हैं; और फिर जिन अच्छे लोगों से मैं जीवन में मिला
उनमें श्री हेल एक उत्कृष्ट व्यक्ति थे। निस्संदेह तुम्हारी स्थिति
दु:खपूर्ण तथा दयनीय है; और यही हाल 'मदर चर्च' का और हैरियट तथा बाकी
लोगों का भी है, खासकर जबकि अपने तरह का यह पहला दु:ख तुम लोगों को मिला
है, ठीक है न ? मैं तो कई को खो चुका हूँ, बहुत दु:ख झेल चुका हूँ और
विचित्र बात है कि किसीके गुज़र जाने के बाद दु:ख यह सोचकर होता है कि हम
उस व्यक्ति के प्रति काफी भले नहीं रहे। जब मरे, तब मुझे महीनों तक कसक
बनी रही, जबकि मैं उनके प्रति अवज्ञाकारी भी था।
तुम बहुत आज्ञाकारी रही हो। और यदि तुम्हारे मन में इस प्रकार की बातें
आती हैं, तो वह शोक के कारण ही।
मुझे लगता है मेरी कि जीवन का वास्तविक अर्थ तुम्हारे लिए अभी ही खुला
है। हम लाख अध्ययन करें, व्याख्यान सुनें और लंबी-चौड़ी बातें करें, पर
यथार्थ शिक्षक और आँख खोलनेवाला तो अनुभव ही है। यह जैसा है, उसी रूप में
उत्तम है। सुख और दु:ख से हम सीखते हैं। हम नहीं जानते कि ऐसा क्यों है,
पर हम देखते हैं कि ऐसा है और यही पर्याप्त है। 'मदर चर्च' को अपने धर्म
से आश्वासन मिलता है। काश, हम सभी निर्विघ्न रूप से सुस्वप्न देख सकते।
तुम अभी तक जीवन में छाँह पाती रही हो। मैं तो सारे समय तेज घाम में जलता
और हाँफता रहा हूँ। अब एक क्षण को तुम्हें जीवन के इस दूसरे पक्ष की झलक
मिली है। पर मेरा जीवन इस तरह के लगातार आघातों से बना है, सैकड़ों गुने
गहरे आघातों से और वह भी निर्धनता, छल और मेरी अपनी मूर्खता के कारण !
निराशावाद ! तुम समझोगी कि कैसे यह आ दबोचता है। खैर, मैं तुमसे क्या
कहूँ मेरी ? तुम इस तरह की सब बातें जानती हो। मैं केवल इतना ही कहता
हूँ-और यह सत्य है-कि यदि दु:ख का विनिमय संभव हो और मेरा मन हर्ष से
परिपूर्ण हो तो मैं अपना मन तुमसे हमेशा हमेश के लिए बदल लूँ। जगन्माता
इसे अच्छी तरह जानती हैं।
तुम्हारा भाई,
विवेकानंद
(स्वामी अखंडानंद को लिखित)
ॐ तत् सत्
कैलिफ़ोर्निया,
२१ फ़रवरी, १९००
कल्याणवरेषु,
तुम्हारा पत्र पाकर और विस्तारपूर्वक सब समाचार पढ़कर मुझे अति हर्ष
हुआ। विद्या और पांडित्य बाह्य आडंबर हैं और बाह्य भाग केवल चमकता है;
परंतु सब शक्तियों का सिंहासन हृदय होता है। ज्ञानमय, शक्तिमय तथा कर्ममय
आत्मा का निवासस्थान मस्तिष्क में नहीं वरन् हृदय में है। शतं चैका त्र हृदयस्य नाड्य:-हृदय की की नाड़ियाँ एक सौ
एक हैं, इत्यादि। मुख्य नाड़ी का केंद्र जिसे संवेदक समूह (sympathetic
ganglia) कहते हैं, हृदय के निकट होता है; और यही आत्मा का निवास दुर्ग
है। जितना अधिक तुम हृदय का विकास कर सकोगे, उतनी अधिक तुम्हारी विजय
होगी। मस्तिष्क की भाषा तो कोई-कोई ही समझाता है, परंतु हृदय की भाषा,
ब्रह्मा से लेकर घास के तिनके तक सभी समझ सकते हैं। परंतु हमें अपने देश
में तो ऐसे लोगों को जाग्रत करना है, जो मृतप्राय हैं। इसमें समय लगेगा,
परंतु यदि तुममें असीम धीरज और उद्योगशक्ति है, तो सफलता निश्चित रूप से
ही प्राप्त होगी। इसमें तनिक भी त्रुटि नही हो सकती।
अंग्रेज़ कर्मचारियों का क्या दोष है ? क्या वे परिवार, जिनकी
अस्वाभाविक निर्दयता के बारे में तुमने लिखा है, भारत में अनोखे हैं ? या
ऐसों का बाहुल्य है ? पूरे देश में यह एक ही कथा है। परंतु यह
स्वार्थपरता जो हमारे देश में साधारण: पायी जाती है, निरी दुष्टता का ही
परिणाम नहीं है। यह पाशविक स्वार्थपरता शताब्दियों की निष्फलता और
अत्याचार का फल है। यह वास्तविक स्वार्थपरता नहीं है, वरन अगाध
नैराश्य है। सफलता के पहले झोंके में यह शांत हो जाएगा। अंग्रेज कर्मचारी
चारों ओर इसी को देखते हैं, इसीलिए उन्हें आरंभ से ही विश्वास कैसे हो
सकता है ? परंतु मुझे यह बताओ कि जब सच्चा कार्य वे प्रत्यक्ष देखते
हैं, तो वे क्या सहानुभूति नहीं प्रकट करते ? देशी कर्मचारी क्या इस
प्रकार कर सकेंगे ?
इन उग्र दुर्भिक्ष, बाढ़, रोग और महामारी के दिनों में कहो तुम्हारे
काँग्रेसवाले कहाँ हैं ? क्या यह कहना पर्याप्त होगा कि 'राजशासन हमारे
हाथ में दे दो ?'और उनकी सुनेगा भी कौन ? यदि मनुष्य काम करता है,तो
क्या उसे अपना मुख खोलकर कुछ माँगना पड़ता है ? यदि तुम्हारे जैसे दो
हजार लोग कई जि़लों में काम करते हों, तो राजकाज के विषय में अंग्रेज
स्वयं बुलाकर तुमसे सलाह लेंगे !! स्वकार्यमृद्धरेत्प्राज्ञ:- 'बुद्धिमान मनुष्य को
अपना कार्य स्वयं पूर्ण करना चाहिए'...अ--को केंद्र खोलने की आज्ञा नहीं
मिली, परंतु इससे क्या ? क्या किशनगढ़ ने नहीं मान लिया ? उसे चुपचाप
काम करने दो, किसी से कुछ कहने की या विवाद करने की आवश्यता नहीं। जो
जगज्ज्ननी के इस कार्य में सहायता करेगा उस पर उनकी कृपा होगी और जो
उसका विरोध करेगा वह केवल-अकारणाविष्कृतवैरदारुण:-अकारण ही दारुण वैर का
आविष्कार ही न करेगा, वरन् अपने भाग्य पर भी कुठाराघात करेगा।
शनै: पन्था: इत्यादि, सब अपने समय पर होगा। बूँद बूँद से घड़ा भरता है।
जब कोई बड़ा काम होता है, जब नींव पड़ती है या मार्ग बनता है, जब दैवी
शक्ति की आवश्यकता होती है-तब एक या दो असाधारण मनुष्य विघ्न और
कठिनाइयों के पहाड़ को पार करते हुए चुपचाप और शांति से काम करते हैं। जब
सहस्रों मनुष्यों का लाभ होता है, तब बड़ा कोलाहल मचता है और पूरा देश
प्रशंसा से गूँज उठता है। परंतु तब तक वह यन्त्र तीव्रता से चल चुका होता
है ओर कोई बालक भी उसे चलाने का सामर्थ्य रखता है या कोई भी मूर्ख उसकी
गति में वृद्धि कर सकता है। किंतु यह अच्छी तरह समझ लो कि एक या दो
गाँवों का जो उपकार हुआ है, वह अनाथालय जिसमें बीस-पचीस अनाथ ही हैं तथा
वे ही दस-बीस कार्यकर्ता-नितांत पर्याप्त हैं ओर यही वह केंद्र बनाता है,
जो कभी नष्ट होने का नहीं। यहाँ से लाखों मनुष्यों को समय पर लाभ
पहुँचेगा। अभी हमको आधे दर्जन सिंह चाहिए, उसके बाद सैकड़ों गीदड़ भी
उत्तम काम कर सकेंगे।
यदि अनाथ बालिकाएँ तुम्हारे आश्रम में किसी प्रकारआ जाएं, तो तुम उन्हें
सबसे पहले ले लेना। नहीं तो ईसाई मिशनरी उन बेचारियों को ले जाएंगे। यदि
तुम्हारे पास उनके लिए विशेष प्रबंध नहीं है, तो इसकी क्या चिंता ?
जगज्जननी की इच्छा से उनका प्रबंध हो जाएगा। घोड़ा मिलने पर चाबुक अपने
आप आ जाएगा। अभी लड़कों और लड़कियों को एक साथ ही रखो। एक नौकरानी रख लो,
वह लड़कियों की देखभाल करेगी; वह उन्हें अलग अपने पास सुलायेगी। अभी
तुम्हें जो मिले, उसे ले लो, चुनाव छंटाव मत करना। बाद में सब कुछ अपने
आप ठीक हो जाएगा। प्रत्येक उद्योग में विघ्नों का सामना करना पड़ता है,
परंतु धीरे-धीरे मार्ग सुगम हो जाता है।
अंग्रेज कर्मचारी को मेरी ओर से बहुत बहुत धन्यवाद का संदेशा देना।
निर्भय होकर काम करो-कैसे वीर हो ! शाबास ! शाबास!! शाबास !!!
भागलपुर में केंद्र खोलने के लिए जो तुमने लिखा है, वह
विचार-विद्यार्थियोंको शिक्षा देना इत्यादि-नि:संदेह बहुत अच्छा है,
परंतु हमारा संघ दीनहीन, दरिद्र, निरक्षर किसान तथा श्रमिक समाज के लिए है
और उनके लिए सब कुछ करने के बाद जब समय बचेगा, केवल तब कुलीनों की बारी
आएगी। प्रेम द्वारा तुम उन किसान और श्रमिक लोगों को जीत सकोगे। इसके
पश्चात् वे स्वयं थोड़ा साधन संग्रह करके अपने गाँव में ऐसे ही संघ
बनायेंगे, और धीर धीरे उन्हीं लोगों में शिक्षक पैदा हो जाँयगे।
कुछ ग्रामीण लड़के और लड़कियों को विद्या के आरम्भिक सिद्धांत सिखा दो और
अनेक विचार उनकी बुद्धि में बैठा दो। इसके बाद प्रत्येक ग्राम के किसान
रुपया जमा करके अपने अपने ग्रामों में एक एक संघ स्थापित करेंगे।
उद्धरेदात्मनात्मानम्-'अपनी आत्मा का अपने उद्योग से उद्धार करो।' यह
सब परिस्थितियों में लागू होता है। हम उनकी सहायता इसीलिए करते हैं, जिससे
वे स्वयं अपनी सहायता कर सकें। वे तुम्हें प्रतिदिन का भोजन प्राप्त
करा देते हैं, यही इस बात का द्योतक है कि कुछ यथार्थ कार्य हुआ है। जिस
क्षण उन्हें अपनी अवस्था का ज्ञान हो जाएगा और वे सहायता तथा उन्नति की
आवश्यकता को समझेंगे, तब जानना कि तुम्हारा प्रभाव पड़ रहा है, एवं तुम
ठीक रास्ते पर हो। धनवान श्रेणी के लोग दया से गरीबों के लिए जो थोड़ी सी
भलाई करते हैं, वह स्थायी नहीं होती और अंत: में दोनों पक्षों को हानि
पहुँचाती है। किसान और श्रमिक समाज मरणासन्न अवस्था में हैं, इसलिए जिस
चीज़ की आवश्यकता है, वह यह है कि धनवान उन्हें अपनी शक्ति को पुन:
प्राप्त करने में सहायता दें और कुछ नहीं। फिर किसानों और मजदूरों को
अपनी समस्याओं का सामना और समाधान स्वयं करने दो। परंतु तुम्हें सावधान
रहना चाहिए कि ग़रीब किसान-मजदूर और धनवानों में परस्पर कहीं जाति-विरोध
का बीज न पड़ जाए। यह ध्यान रखो कि धनिकों के प्रति दुर्वचन न कहो- स्वकार्यमुद्धरेत्प्राज्ञ:-'ज्ञानी मनुष्य को अपना
कार्य अपने उद्योग से करना चाहिए।'
गुरु की जय हो ! जगज्जननी की जय हो ! भय क्या है ! अवसर, औषधि तथा इनका
उपयोग स्वयं ही आ उपस्थित होंगे। मैं परिणाम की चिंता नहीं करता, चाहे
अच्छा हो या बुरा। इतना काम यदि तुम करोगे, तो मुझे हर्ष होगा।
वाद-प्रतिवाद, मूल-पाठ, शास्त्र, साम्प्रदायिक मत-मतान्तर-इनसे मैं
अपनी इस बढ़ती हुई उम्र में विष की तरह द्वेष करता हूँ। यह निश्चित रूप से
जानो कि जो काम करेगा, वह मेरे सिर की मुकुट-मणि होगा। व्यर्थ शब्दों का
विवाद और शोर मचाने में हमारा समय नष्ट हो रहा है और हमारी जीवन-शक्ति
क्षीण हो रही है तथा मनुष्य जाति के कल्याण के लिए एक पग भी हम आगे नहीं
बढ़ पा रहे हैं। माभै:-'डरो मत !' शाबास! निश्चय ही तुम वीर हो। श्री
गुरु तुम्हारे हृदय-सिंहासन पर स्थित रहें और जगज्जननी तुम्हें
मार्गप्रदर्शन करें ! इति।
(कुमारी मेरी हेल को लिखित)
१२५१ पाइन स्ट्रीट,
मैन फ़्रैंसिस्को,
२ मार्च, १९००
प्रिय मेरी,
तुम्हारी बड़ी कृपा है जो तुमने शिकागो आने के लिए मुझे आमंत्रित किया।
काश कि मैं वहाँ इस क्षण ही उपस्थित हो सकता ! किंतु मैं धनोपार्जन में
व्यस्त हूँ, बस दु:ख केवल इतना है कि मैं अधिक नहीं कर पाता। तुम जानती
हो मुझे घर वापस लौटने के लिए किसी भी प्रकार से पर्याप्त पैसा पैदा करना
है। यहाँ एक नया कार्य क्षेत्र मुझे मिला है, जहाँ सैकड़ो लोग, जो मेरी
पुस्तकें पढ़कर पहले ही से प्रस्तुत हैं, मेरी बातें सुनने को उत्सुक
हैं।
यह सही है कि अर्थोपार्जन करना कठिन और मंद कार्य है। यदि मैं दो-चार सौ
भी बना लूँ, तो मुझे बेहद खुशी होगी। इस समय तक तुम्हें मेरा पिछला पत्र
मिल चुका होगा। मुझे आशा है कि महीने-छ: हफ्ते में मैं पूरब की ओर आ रहा
हूँ।
तुम सब कैसी हो ? 'मदर' से मेरा हार्दिक स्नेह कहना। काश, उनकी जैसी
शक्ति मुझमें भी होती ! वे एक सच्ची ईसाइन हैं। मेरा स्वास्थ्य काफी
अच्छा है, पर वह पुरानी ताकत अभी नहीं आ पायी है। आशा है कि किसी दिन आ
जाएगी, पर छोटी छोटी चीजों के लिए भी कितना कठिन श्रम करना पड़ता है !
मेरी बड़ी इच्छा है कि कम से कम कुछ दिनों के लिए ही मुझे आराम-चैन मिल
पाता। मुझे पूरा विश्वास है कि शिकागो में अपनी बहनों के पास यह मिल सकता
है। खैर, जैसी कि मेरी कहने की आदत है, जगन्माता सब कुछ जानती हैं। वे
भली भाँति जानती हैं। पिछले दो वर्ष विशेषतया बुरे रहे हैं। मैं एक मानसिक
नरक की स्थिति में रह रहा था। अब वह कुछ कुछ दूर हो चला है और मैं आशा
करता हूँ कि यह सब अच्छे दिनों और अच्छी स्थिति के लिए ही हुआ है। तुमको
और बहनों को तथा 'मदर' को बहुत आशीर्वाद। मेरी, तुम सदैव मेरे कर्कश एवं
संघर्षपूर्ण जीवन मे मधुरतम स्वर-ध्वनियों के समान रही हो। फिर यह
तुम्हारे अच्छे महान कर्मों का फल था कि बिना किसी दमनशील वातावरण के
तुम्हें जीवन आरंभ करने का मौका मिला। मैं तो जीवन में एक क्षण का भी
विश्राम नहीं जानता। मानसिक रूप से जीवन मेरे लिए सदा एक दबाव की तरह रहा
है। ईश्वर तुम्हारा कल्याण करें।
तुम्हारा चिरस्नेही भाई,
विवेकानंद
(कुमारी जोसेफ़िन मैक्लिऑड को लिखित)
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